Sunday, August 21, 2011

वोही चेहरा

बरसो बाद आज फिर वही चेहरा दिखाई दे गया
वही मुस्कान ,वही अंदाज़
कुछ यादो की सोगात दे गया
मुस्करा पड़ी थी ,मुस्कान उसकी देखकर
खिल उठी थी मै, खिलता उसे देखकर
पर सोचती हू
कहीं ये सिलसिला ,फिर शुरू न हो
आगे बढ़ते पैरो में
यादो की ज़ंजीर न हो
छोड़ आयी जिन यादो को
वक़्त के किसी मोड़ पर
वर्तमान क्यों गवाऊं उन्हें यद् कर
सच है ये टुटा आइना फिर जुड़ नहीं सकता
टूटकर डाली से फूल फिर खिल नहीं सकता
जोड़ो कितना ही टूटे हुए धागे को गांठ पद ही जाती है
मत देख वो खवाब जो सच हो नहीं सकता

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