Wednesday, August 15, 2018

Sunday, August 12, 2018

मम्मी देखो न 
 ये चाँद टुकुर टुकुर  तकता है 
मुँह से तो कुछ न बोले 
पर मन ही मन ये हस्ता है 
चैन से मुझको सोने नहीं देता
खुद साडी रात चलता है
मम्मी  देखो न
ये चाँद टुकुर टुकुर  तकता है
इसको भी  चपत लगाओ
 खूब ज़ोर से डांट लगाओ
मुझको नींद आती है
फिर ये  सारी रात जगता है
मम्मी  देखो न
ये चाँद टुकुर टुकुर  तकता है
ये नहीं स्थिर मन का मन का
कभी घटता कभी बढ़ता है
कभी आकाश में छुप जाता है
 मुँह से तो कुछ न बोले
पर मन ही मन ये हस्ता है
मम्मी  देखो न
ये चाँद टुकुर टुकुर  तकता है

Thursday, August 9, 2018

kuch aisa ho mera ghar

मेरा घर कुछ ऐसा हो 
जहाँ आती हो सूरज की पहली किरण 
जहाँ सुनाई दे पक्षियों का कलरव 
जहाँ से दिखाई दे हरियाली ,खुला आसमान 
चाँद ,सूरज ,तारे 
जहाँ एक कोना हो मेरी किताबों का 
जहाँ मैं बुन सकूँ अपने सपने 
कर सकूँ मैं सृजन 
रच सकू कोई रचना 
जहाँ मिल सके विचारों को उड़ान 
जहाँ अभिव्यक्ति की हो स्वंत्रता 
नर -नारी की हो समानता 
मानवता ही धर्म हो 
पर -सेवा ही कर्म हो 
जहाँ बच्चे भरते हो किलकारी 
जहाँ बेटियां हो सबसे प्यारी
 जहाँ पा सकू मैं स्वम् को 
अपने अस्तित्व को  अपने स्वाभिमान को 
कुछ ऐसा हो----मेरा घर 

bas yu hi

बस यु ही 
लड़ते -झगड़ते ,रूठते -मनाते 
समय कुछ यूँ उड़ गया पंख लगाकर 
कैसे -कैसे मोड़ आये ज़िंदगी के 
कभी हंसकर रोये 
कभी रोकर मुस्कराये 
कभी की शरारतें 
कभी कट गयी रातें 
बातों ही बातों में 
कितनी दूर चले आये हम 
यूँ ही चलते -चलते 
वो लड़कपन ,वो बचपन 
जाने कहाँ खो गया 
कुछ रिश्ते बदल गए 
कुछ हम बदल गए 
कुछ बदल गयी ये ज़िंदगानी 
एक -दूजे से बात करने के लिए 
बहाना ढूंढते हैं आज 
क्यों इतना व्यस्त सब हो गए??
वंदना शर्मा 
नई दिल्ली 
बगावत 
क्यों नहीं सोच पाती लड़कियां 
सिर्फ अपने बारे में 
क्यों सुख ढूंढती हैं वो पुरुष की अधीनता में 
क्यों चाहिए पुरुष का कन्धा 
दुःख हल्का करने के लिए 
क्यों नहीं निकल पाती इस चक्र्व्यूह से 
क्यों नहीं नकार देती पुरुषो का अस्तित्व 
क्यों हर बार बस हारकर खुश हो जाती है 
ऐसा क्या है जो उन्हें रोके रखता है 
इस भ्र्म की दुनिया से बाहर नहीं आने देता 
क्यों नहीं अलग दुनिया बनाती अपने लिए 
क्यों समपर्ण में ही अपनी जीत समझती है 
एक बार बगावत करके तो देखे 
काँप जाएगी ये दुनिया नारी शक्ति से 
नारी अबला नहीं शक्ति है 
फिर क्यों अनजान रहती है खुद से 
जिस दिन नकार दिया नारी ने 
पुरुषो का अस्तित्व 
प्रलय आ जाएगी 
जीवन नष्ट हो जायेगा
 त्राहि त्राहि करता बेचारा पुरुष नज़र आएगा 
वंदना शर्मा 
नई दिल्ली 

Monday, August 6, 2018

dugadda ki yaaden

मैं बहुत दिनों से पापा से ज़िद कर रही थी -" पापा कहीं घूमाने ले जाओ,कहीं लेकर नहीं जाते। सारी छुट्टियां ऐसे ही ख़त्म हो जाती हैं। " पापा ने कहा -"ठीक है इस रविवार को चलेंगे ". मेरी ख़ुशी का तो ठिकाना ही नहीं था। 
मैंने शनिवार से ही पापा को याद दिलाना शुरू कर दिया-" पापा कल कहीं मत जाना ,हमे घूमने जाना है। चलोगे ना बस एक बार हाँ कर दो फिर तो जाना ही पड़ेगा। क्युकि झुठ बोलना गन्दी बात है। " पापा ने कहा -" कल पोलियो रविवार है। मेरी ड्यूटी लग सकती है। " पहले कहा क्यों था ?हर बार ऐसे ही करते हो ". . और मैं नाराज़ होकर चली गयी। 
अगले दिन सुबह ही पापा कहीं गए ,सबने सोचा किसी काम से गए होंगे। पर पापा ने आकर कहा -" अभी तक तैयार नहीं हुए ,घूमने नहीं जाना क्या ? मैंने गाडी कर दी है। ९. बजे तक आजायेगी। जल्दी करो। " "पापा सच में ??" मैंने पूछा। पापा ने कहा -"फिर तू सारे दिन नाराज़ रहती। तुझसे तो डरना ही पड़ता है। " पांच अप्रैल का दिन मेरे लिए यादगार बन गया। मेरे पापा मुझे बहुत प्यार करते हैं। हम दोनों एक दूसरे से बात किये बिना एक दिन भी नहीं रह सकते। 
हमने जल्दी जल्दी पैकिंग की। और चल दिए एक सुहाने सफर की ओर। वैसे मैं बहुत लकी हु सब मुझे बहुत प्यार करते हैं। घर में भी और कॉलेज में भी। अपने कॉलेज की फेवरेट स्टूडेंट हु मैं। बड़े भैया भी मुझे चिढ़ाते रहते हैं ये पत्रकार जो कर दे थोड़ा है। ठीक दस बजे हम अपनी गाड़ी से सिद्धबली के लिए चल दिए। भैया भाभी ,मम्मी और मेरी छोटी बहिन विनय हम सब एक साथ जा रहे थे। मैं बहुत खुश थी।  आँखों में रंगीन सपने लिए और गाने सुनते हुए हम चले जा रहे थे। मैं हमेशा खिड़की की ओर बैठती हु ,मुझे खिड़की से प्रकृति को निहारना बहुत अच्छा लगता है। उस दिन मौसम कुछ अधिक ही सुहावना हो रहा था। हवा ठंडी ठंडी मस्त होकर बह रही थी। ऐसा लग रहा था ये पेड़ भी मेरी ख़ुशी में खुश होकर नाच रहे है। रस्ते में एक जगह पेड़ काटे जा रहे थे। वो पेड़ गिरने ही वाला था ,हमने गाड़ी कुछ दुरी पर ही रोकी। वो सरकारी पेड़ थे। भैया ने बताया -" ये लिप्टिस के पेड़ है। इनका सरकारी ठेका होता है। देखते ही देखते मज़दूरों ने पेड़ काट भी दिया और रास्ता भी साफ़ कर दिया। भैया ने मेरा ध्यान सामने की तरफ फैले कोहरे से ढके हुए पहाड़ो की ओर दिलाया। वहां चारो तरफ आसमान से बाते करते ऊँचे ऊँचे पहाड़ थे। आगे का रास्ता और भी खूबसूरत था। पहाड़ो को काटकर सड़क बनायीं गयी थी। हम पहाड़ के बीच में से गुजरे। सड़क के एक तरफ पहाड़ और एक तरफ बेहता निर्मल पानी का झरना। वहां पर घर पास पास नहीं बने थे। दूर दूर थे। मैदानी इलाको में सभी घरो की छते आपस में जुडी रहती है। लेकिन वहां ऐसा नहीं था। 
पहाड़ी लोग सच में बहुत मेहनती होते है। कैसे बिखरे -बिखरे समूह में रहते हैं। बाजार व् अन्य सुविधाएँ भी घर से बहुत दूर। कैसे रहते होंगे ये ? यह सब सोचते सोचते सिद्धबली का मंदिर भी आगया। ड्राइवर ने गाडी पार्क की। वहां का दृश्य बहुत ही सुन्दर व् अद्भुत था। मंदिर ऊंचाई पर बना हुआ था. खूब सारी सीढ़ियां बनी हुई थी। लेकिन जोश कुछ ज़्यादा ही था। मैं भागकर ऊपर चली गयी। इतना मम्मी ,भैया-भाभी आये मैंने फोटोग्राफी की। मंदिर के चारो ओर गंगा के बहने का मार्ग था। लेकिन उस समय पानी सूखा हुआ था. कहीं कहीं थोड़ा बहुत पानी था जिसमे बच्चे नहा रहे थे। ऊपर से देखने पर सब बहुत छोटे लग रहे थे। चारो तरफ खुला आसमान था ,दूर -दूर तक कोई बिल्डिंग नहीं थी। दूर कही कुछ होटल जैसा दिखाई दे रहा था। मंदिर के निचली तरफ शायद एक बस्ती भी थी। अकेले उस बस्ती में जाने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। फिर मैं मम्मी और भाभी के साथ बालाजी के दर्शन करने चली गयी। वहां की व्यवस्था अच्छी थी। सब लाइन में थे। मैं मम्मी को पकड़कर चल रही थी क्युकी चल आगे रही थी देख चारो तरफ रही थी। मंदिर की दीवारों व् छतों पे नक्काशी से बनी खूबसूरत पेंटिंग थी। मैं उन्हें देखने में ही मस्त थी पता ही नहीं चला कब मम्मी आगे चली गयी और मैंने किसी आंटी को पकड़ा हुआ था। जब होश आया तो हसी भी आयी इस पागलपन पर , बिना कुछ कहे मुस्कराकर आगे बढ़ गयी। अंदर हनुमान जी की एक बहुत बड़ी मूर्ति थी। वहां गुड़ की भेली ,बताशे और नारियल का प्रसाद चढ़ाया जाता है। भाभी ने पुजारी को चढाने के लिए प्रसाद दिया उन्होंने आधा चढ़ाकर हमे वापिस कर दिया। फिर हमने मंदिर की परिक्रमा की। 
मंदिर के निचले हिस्से में एक जलकुंड था जिसमे सूंदर फूल खिले हुए थे। मैं वहां जाना चाहती थी लेकिन सब आगे जा चुके थे। भागकर पहले उन्हें पकड़ा। यहाँ से १५-२० किमी दूर एक जगह है दुगड्डा। करीब १ बजे हम वहां पहुंचे। वहां सड़क पर एक बस गेट बना हुआ था। अंदर शेरोवाली का एक छोटा सा मंदिर था। मंदिर से नीचे की और सीढिया जा रही थी. देखने में तो छोटा था पर बहुत अच्छा बना था मंदिर। जैसे ही अंदर पहुंचे वहां एक बड़ा हाल था वहां एक शिवलिंग भी था। पास में ही पहाड़ के अंदर गुफा जैसा कुछ था। पहले तो मैंने डर के मारे दूर से हाथ ही जोड़ लिए फिर सोचा चलकर देखे आखिर है क्या अंदर ?डरते -डरते मैं अंदर गयी वहां प्रकाश की एक किरण  दिखाई दी। वहीं बराबर में ज्योत जल रही थी और प्रसाद चढ़ा हुआ था ,यहाँ ऐसे ही भगवान जी होंगे यही सोचकर मैं वहीं प्रणाम करके बाहर आ गयी। 
मंदिर से नीचे की तरफ सीढ़ियां जा रही थी और वो सीढ़ियां हमे प्रकृति की गोद में छुपी एक खूबसूरत जगह ले गयी। वहां चरों तरफ ऊँचे -ऊँचे पहाड़ थे। नीचे बहुत बड़े बड़े पत्थर थे। कहीं कहीं पानी का स्रोत बह रहा था। पता नहीं कहाँ से आरहा था। धुप में भी वहां बहुत ठंडक महसूस हो रही थी। वहां कुछ लोग नहा रहे थे  कुछ जोड़े पानी में मस्ती कर रहे थे कहीं बच्चे खेल रहे थे। हम नहीं एक सुरक्षित सी जगह देखकर आगे बढे। एक ऊँचा पर चौड़ा  पत्थर था। हम  उसी पर चढ़ गए। वहीं बैठकर हमने भोजन किया। जिस पत्थर पर हम बैठे थे उसके दूसरी और पानी का एक झरना बह रहा था। हम मम्मी से आज्ञा ले नीचे उतरने लगे। वहां पत्थर पड़े हुए थे। पानी ज़्यादा नहीं था उसमे पड़े पत्थर साफ़ दिखाई दे रहे थे। हम उस झरने तक पहुंचना चाहते थे लेकिन एक पत्थर पर काई जमे होने के कारन पैर फिसल गया। गिरने से बाल बाल बचे। पानी ठंडा था। हमने कुछ देर वहीं ठहरने का निश्चय किया और खूब मस्ती की। एक पत्थर के पास पानी कुछ गहरा था। उसमे नन्ही मछलियां तैर रही थी। कुछ चमकीले पत्थर भी थे।  दिन कब ढल गया पता ही नहीं चला।  अँधेरा बढ़ने लगा तो हम भी अपने आशियाना लौट गए। 

Sunday, August 5, 2018

yaaden

कोशिश बहुत की रोकने की 
यादों की उफनती लेहरो को 
पर बहुत ज़िद्दी हैं वो 
और उफनती है और उफनती हैं 
जैसे लहरें साथ लाती हैं अपने 
कोई सीप ,कोई नन्हा मोती 
उसी तरह तुम्हारी यादें 
साथ लाती हैं 
कुछ अनकही -अनछुई खुशबुए 
और भीग जाती हैं पलके 
उन यादों में 
जैसे कोई लहर छू जाती है पैरों को 
और सिहर जाता है मन 
एक अनजाने डर से 
डर ,तुम्हे खोने का 
डर सपने टूटने का 
लेहरो में बिखर जाने का डर 
पर ए दोस्त !
संजोकर रखूंगी मैं इन यादों को 
जैसे किताब में रखी है गुलाब की सुखी पत्तियां 
पर उनकी खुशबु आज भी भर देती है ताजगी से मुझे 
तुम्हारी यादों की खुशबु 
उसी तरह मुझे ताजगी देती रहेगी 
खोलूंगी जब भी मैं अपनी यादों के पन्ने 
और 
उन पर लिखा होगा तुम्हारा नाम 
तुम्हारी यादें !

Saturday, August 4, 2018

कोई क्या जाने इश्क क्या है 
खुद को फ़ना कर दे
 दिल को समझना अगर है 
'मेँ 'को खोकर ,इश्क पाया जाता है 
खुद को भुलाया जाता है 
अहम् को दफनाया जाता है 
किसी  की ख़ुशी की खातिर आंसू पीना पड़ता है 
एक आग का दरिया है 
अंगारो पर चलना पड़ता है 
कोई   क्या जाने इश्क क्या है 
दुनिया बेमानी लगती है 
जब कोई अपना लगता है 
हक़ीक़त दुश्मन लगती है 
जब सपना सच्चा लगता है 
सब जग वैरी  हो जाता है 
कोई   क्या जाने इश्क क्या है 
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उसे शिकायत है 
मुझे उसके सिवा कुछ दिखाई नहीं देता 
मेरा समर्पण ,मेरा प्यार उसे दिखाई नहीं देता 
एक मुझे छोड़ सारे ज़माने की परवाह उसे 
कहीं ऐसा न हो एक दिन 
सारा ज़माना हो साथ उसके 
एक मैं  ना हूँ पास उसके 
तब जाकर समझ आये उसको 
क्या खोया क्या पाया उसने। ... ---
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Friday, August 3, 2018

fool ki vyatha

ए फूल !क्या कहूं तेरी व्यथा 
था डाली पर तो ,महका रहा था उपवन 
टूटा डाली से ,क्या -क्या हुआ 
कभी माला  गुंथा गया 
कभी मंदिर में चढ़ाया गया 
किसी ने प्यार से उठाया 
किसी क्रूर के हाथों मसला गया 
किसी के पैरो तले कुचला गया 
कहीं हार ,गजरा ,श्रद्धा सुमन 
नाम -उपनाम मिले 
पर अंत में उसी माटी ने तुझे अपनाया 
पहले तुझे पूरा मिटाया 
फिर  नया अंकुर उगाया 
नयी कोंपल फूटी 
फिर से तू  फूल बना 
ए फूल !इतना बता 
क्या मिला तुझे होकर जुदा उस डाली से 
अपनी ज़िंदगी भी तू जी नहीं पाया 
वंदना शर्मा 
नई दिल्ली 

likhu kya - ek uljhan

सब कहते है लिखो बेटा 
पर लिखू क्या 
जब भी लिखने बैठु 
तभी विचारशून्य हो जाती हूँ 
वैसे तो ये मन बड़ा बावरा 
सारे दिन दौड़ लगाए विचारो की
 जैसे कोई एक्सप्रेस ट्रैन 
पल में इस पार 
पल में उस पार 
पर जब भी मैं बैठू लिखने लगूँ सोचने 
सारे इंजन फेल 
मन  गाडी एक कदम भी ना सरक पाए 
पटरी से उतरी -उतरी जाए 
रे मन ! तुझको क्या दुश्मनी मुझसे 
काहे की हसी उढ़ाये 
तू मेरी सुन ,मैं सुनु तेरी 
कुछ अपनी सुना ,कुछ सुन मेरी 
आज तो मैं लिख डालू पूरी पोथी 
पर लिखुँ क्या ?

Wednesday, August 1, 2018

e magzin