Saturday, July 28, 2012

जब मै छोटी थी बहुत बोलती थी , अब भी बोलती हु कभी कभी ,पर जब खुश होती हू तब ज्यादा बोलती हू , नहीं तो खामोश ही रहती हू ..............
मासूम ,निर्दोष ,चंचल मुस्कान चेहकती है
दूसरो के दुखदर्द को अपना समझती है
खिलती है ,मुस्कराती है ,सबको हसाती है
कहते है सब उसको 'बहुत -बहुत बोलती है
सबको प्यार लुटाती वो
सबके काम आती वो
बस ज़रा सा प्यार चाहती वो
उफ्फ्फ ! 'बहुत बोलती है '
लड़ती है ,झगड़ती है ,हँसती है
रूठती है ,रुठो हुओ को मनाती है
गम छुपाकर अपना हरदम मुस्कराती है
कैसी लड़की है-'बहुत बोलती है'
सबकी सुनती है ,कुछ अपनी सुनाती है
बच्चे ,बूढ़े सभी से बतयाती है
नहीं किसी का दिल दुखाती है
कहते है सब उसको 'बहुत बोलती है' .......
वंदना शर्मा

यह कविता मेरी छोटी बहन विनय को समर्पित है ............
एक थी लड़की नकचढ़ी
बाते करते बड़ी -बड़ी
गुस्सा हरदम नाक पे रहता
हँसती जैसे फूलों की लड़ी
चूहे से डर जाती वो
फिर भी शूरमा कहलाती वो
सबपे रोब जमाती वो
ऑर्डर देती खड़ी -खड़ी
एक थी लड़की नकचढ़ी ..........
किताब न उसके हाथ से हटती
राम जाने क्या क्या पढ़ती
आती जब परीक्षा की घड़ी
कर देती मेरी भी खटिया खड़ी
एक थी लड़की नकचढ़ी
 बातो की चाट  बनाती
 ख़ूब हींग - मिर्च उसमे लगाती
बड़ा प्यारा  सा मुह बनाती वो
मीठी -मीठी डाट लगाती 
अपनी बात पे रहती अड़ी -अड़ी  
एक थी लड़की .................
वंदना शर्मा 
यह कविता मेरी भतीजी मिट्ठू की याद में लिखी गयी है ,जब वो मेरे पास थी हम दोनों बहुत सरारते किया करते थे , पानी में छप -छप करना , शोर मचाना , गाने गाना दोनों दोनों साथ साथ करते ........
डेड़ फुट का नन्हा सा कद
होंसले उसके सबसे बुलंद
आसमां को मुट्ठी में कैद करना चाहे
कभी इधर कभी उधर
हिरनी सी उछल -कूद मचाए
नहीं लगता उसे किसी से डर
उसकी हरकतों से हम सब जाते डर
दिन भर जाने क्या क्या करती
सरे जहाँ की बाते करती
सबकी निगाहें उस पर रहती
कब जाने क्या कर दे
किसको  पीटे किसे बाहों में भर ले
चंचल ,चपल ,नटखट  नन्ही सी जान
इस नन्हे आतंकवादी से हम सब हैरान
इतनी उर्जा इतना जोश
उड़ा देती वो सबके होश
आगे -आगे वो ,पीछे -पीछे हम
सबकी लाडली करती सबकी नाक में दम .................
वंदना शर्मा

Wednesday, July 18, 2012

मोसम सावन का हो और बहार न हो
ऐसा भी होता है कहीं , नहीं होता ना
त्यौहार तीज का हो ,और झूला न हो
ऐसा भी होता है कहीं ,नहीं होता ना
घर से तो निकले मंजिल की ओर
और कोई राह ना मिले
ऐसा भी होता है कहीं ,नहीं होता ना
फूलों का गुच्छा हो और कोई काँटा न चुभे
बदलो की गड -गड हो और बारिश न हो
ख़ुशी से शोर मचाऊ और कोई वजह न हो
ऐसा भी होता है कहीं ,नहीं होता ना
क्रिया हो और प्रतिक्रिया न हो
परिणाम हो और कारन न हो
दिन तो हो और रात न हो
बसंत तो आये ,पर जाये न कहीं
ऐसा भी होता है कहीं , नहीं होता ना
होता है ,होता है ऐसा भी होता है
मेरे सपनो की दुनिया में
कुछ भी हो सकता है
ऐसा भी होता है ,वैसा भी होता है
जैसा भी होता है ,अच्छा ही होता है
तो फिर गम क्या ,हँसो और हँसते रहो
ऐसा भी होता है कहीं , नहीं होता ना ..................
वंदना शर्मा

किसी चेहरे पर छायी उदासी ने
मन को छुआ
द्रवित हो रहा था उसके दुःख में
पर ,दूजे ही पल
किसी चेहरे की चालाकी से
भर उठा मन घ्रणा से
एक ही पल में कहाँ गयी वो
ह्रदय की विशालता
कहाँ गया वो अपनापन
इतनी शीघ्र ,अनायास ही
ह्रदय परिवर्तन
समझ में तो नहीं आया
बल्कि , छोड़ गया एक
सवाल   मानस पर
क्यों कोई अच्छा लगता है
क्यों कोई अपना लगता है
किसी से कटा -कटा रहता है
ये मन केसे रूप बदलता है
छाव कहीं ,कहीं धुप
कहीं मेघ बरसता है
वंदना शर्मा 
मुझे शुरू से ही रास्ते अच्छे लगते है
मंजिल से ज्यादा
कभी परवाह नहीं की मैंने मंजिल की
बस जो करना है सो करना है
हर फैसला  उस उपरवाले पर छोड़ दिया
ये मेरे विश्वास की जीत थी शायद
कभी गिरने नहीं दिया मुझे
वंदना शर्मा  

Sunday, July 8, 2012

मेरे दर्द की दुनिया बहुत बड़ी है
मै एक लड़की हु
दर्द से गहरा नाता है मेरा
असहनीय दर्द सहकर भी सृजन करती हू
और मुस्कराती हू
मै एक कवि हू
सारी दुनिया का दर्द
मेरा दर्द बन कविता बन जाता है
पशु -पक्षी ,पेड़ो का दर्द भी आहत कर जाता है
इन सबसे ऊपर मै एक इन्सान हू
मानवता मेरा सबसे पहला धर्म है
इस दुनिया में जब कभी भी
कहीं भी मानवता आह्त होती है
तो दर्द मुझे होता है , आँखे मेरी रोती है
मेरे दर्द की दुनिया बहुत बड़ी है
दर्द से गहरा नाता है मेरा ..............
वंदना शर्मा 
बारिश चाहे बेमोसम हो
या मौसम से हो
मुझे तो किअच्छी लगती है
किसी को बुरी लगती है तो लगे
मुझे तो अच्छी लगती है
सडको पे किचच होती है
तो हो जाने दो
कहीं पर पानी भर जाने दो
अभी तो बस तन भीगा है
मन को तो भीग जाने दो
बड़े बनकर तुमने क्या पाया
ओढ़ गम्भीरता क्या पाया
चलो छोड़ो क्या खोया क्या पाया
कभी तो बच्चा बनकर देखो
ये पागलपन भी करके देखो
इन बूंदों के साथ मचलकर देखो
छप -छप  पानी में छप -छप करना
तेज़ गरज सुनकर डरना
चम्--चम् बिजली चमकने दो
होश सारा खोने दो
जो जलता है जलने दो
आज तो बारिश होने दो .......
वंदना शर्मा 

Monday, July 2, 2012

 कहाँ खो जाती हु मै
चली जाती हु ,किसी और दुनिया में
इस दुनिया से कहीं दूर  कुछ पल के लिए
आने पर पाती हु तनहा इस दुनिया में
जैसे जागी हु अभी गहरी नींद से
और समझने की करती हु कोशिश
अपने आस-पास की दुनिया को
कुछ अपने और कुछ सपने एक जैसे होते है
जितना पास होते है ,उतने दूर लगते है
जाने कहाँ खोई थी , किन्ही विचारो में
कोयल की कूक ने चेताया
 क्या था ऐसा जो ...
जो अभी तक समझ नहीं आया
कहीं तो कुछ है ,जो किये हुए है बेचैन
ये असीमित आकाश
ये उड़ते परिंदे 
दूर कहीं खोजती कुछ अपना सा
मेरी ये व्याकुल द्रष्टि
सब कुछ तो है जिंदगी में
फिर क्यों लगता है कुछ अधुरा सा
और इन अनजाने -जाने प्रश्नों में
कहीं खो जाती हु मै .............
वंदना शर्मा 

Sunday, July 1, 2012

 ये जिंदगी भी क्या जिंदगी है
मिलना है जिंदगी या बिछुड़ना है जिंदगी
या गमो में मुस्कराना है जिंदगी
अपने लिए नहीं   दुसरो के लिए जीना है जिंदगी
हर मोड़ पे   अकेले है हम
हम जिंदगी के साथ हैं या हमारे साथ जिंदगी है
  ऐसा लगता है हाथ से फिसलती जा रही है जिंदगी
    वक़्त  के हाथो मजबूर है हम
क्यों तनहा करती जा रही है जिंदगी