Thursday, September 27, 2018

जिए तो ज़रा बस एक पल -

{ पहाड़ी स्त्रियों को समर्पित }
इचक दाना -विचक दाना 
सुनो क्या कहता है मीठा दाना 
रंग लाई अपनी मेहनत 
देंगी गवाही गेंहू की ये कलियाँ 
लहलहाती फसल हमारी 
सींचा इसे हमने अपने सपनो से 
सुनो सखी मान गयी है सारी दुनिया 
हँस-हँस कर गारही हैं कलियाँ 
जीवन रोपती मेहनतकश स्त्रियां 
जीवन काटती हैं मेहनतकश स्त्रियां 
सुनो सखी !सबको ज़रा बताना 
इचक दाना -विचक दाना  
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मानो या न मानो 
बहुत कुछ है 
कहने को 
आपके मन में भी 
कुछ मेरे मन में भी 
ये बात और है 
तुम सुनना नहीं चाहते 
ना अपने दिल की 
ना मेरे दिल की 
कुछ गलत हूँ मैं भी 
तो कुछ तुम भी 
साथ ना चले तुम 
न चले हम 
रास्ता भी एक 
मंजिल भी एक 
तो क्यों ना चले 
साथ -साथ 
हम-तुम ,तुम-हम 
बोलो ना -----
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मंजिल सामने है 
राह का भी ज्ञान है 
फिर क्यों पग उस राह से अनजान है 
एक अजीब सा भय मन को बांधे है 
लगता है कभी 
ना नीचे धरती है ,ना ऊपर आसमान है 
खंड -खंड हुई ज़िंदगी 
जोड़ना इनको क्या इतना आसान है 
अजीब मोड़ है ज़िंदगी का 
लिखा तो बहुत ,फिर भी कोरा कागज 
सोचकर मन ये बहुत हैरान है 
अनजाने चेहरों के बीच 
ढूंढती आँखे खुद अपनी पहचान है 
मंजिल सामने है  
फिर क्यों पग उस राह से अनजान है 
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गूंजता रहता है सारे दिन 
बच्चों की किलकारियों से एक पार्क 
मेरे घर की खिड़की से झांकता हुआ 
कुछ गुनगुनाता रहता है 
कर देता है भांग मेरी ख़ामोशी 
इधर -उधर भागते ,दौडते बच्चे 
कितने बेफिक्र ,मस्त 
कोई चिंता नहीं 
कुछ खोने का डर नहीं 
कुछ पाने की लालसा नहीं 
जो कुछ है 
बस यही एक पल है 
इसी पल को जीना चाहते हैं 
काश हम बड़े भी 
बस एक इस पल को जीना सीख जाए 
तो कोई शिकायत ना रहे 
किसी को किसी से 
बस ये पल और 
इस पल में सारी ज़िंदगी ---
जिए तो ज़रा बस एक पल ------
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अचानक से आये एक वायुयान ने 
माचा दी हलचल आकाश में 
इधर -उधर उड़ने लगे 
बैचेन हो परिंदे 
खो अपनी स्वभाभिक चाल 
हो गए अपने समहू से दूर 
हे निष्ठुर मानव 
क्या ज़मीन कम लगी तुझे 
धरती पे क्या कम था तेरा आतंक 
कि कर दी दखल 
तूने परिंदो के जहाँ में 
कम से कम इस जहाँ को तो बक्शा होता 
निसंदेह मानव ने प्रगति का इतिहास रचा है 
पर किस कीमत पर ?
कभी क्यों नहीं सोचा 
प्रकृति से पन्गा ना ले मानव 
क्रोध इसका पचा नहीं पायेगा 
अब भी वक़्त है ,संभल जा 
धरती को बचा ,प्रकृति को सजा ---- 

Tuesday, September 25, 2018

बालकनी ,एक ऐसी जगह

बालकनी 
हर घर में होती है 
बालकनी ,एक ऐसी जगह 
जहाँ से खुलती है विचारो की खिड़की 
दिखायी देता है सारा आसमान 
मिलते हैं मेरे सपनो को पंख 
बतिआने आती है एक नन्ही चिड़िया 
दूर पेड़ पर करतब दिखाती नन्ही गिलहरी 
एक ऐसी जगह 
जहाँ अक्सर आती हैं महिलाएं 
अपने केश सँवारने 
युवा अपने फोन पर बतियाने 
बुजुर्ग अपनी यादों के किस्से सुनाने 
बच्चे आते हैं नयी दुनिया को समझने 
कुछ सामान बाहर फेंकते है 
कुछ अंदर तोड़-फोड़ करते हैं 
बालकनी से झांक झांक कर 
राहगीरों को आवाज़ लगाते हैं 
कभी बंदर -कभी चिड़िया 
ज़ोर ज़ोर चिल्लाते हैं 
एक ऐसी जगह 
जहाँ छिपाते हैं कुछ अपने आंसू 
मिटाते हैं कुछ अपनी उदासी 
जलाते हैं कुछ अपना क्रोध 
जब शांत हो जाता है मन 
हल्का सा मुस्काते हैं 
और बतियाते हैं ---एक कप कॉफी लेकर 
बतियाती है उनके साथ 
बालकनी ------

Thursday, September 20, 2018

वो मस्ती भरे दिन 

वो मस्ती भरे दिन
वो मस्ती भरे दिन 
वो पीपल की छाँव 
वो सखियों का साथ 
लाल परी ,नीली परी 
पोशम्पा -भई पोशम्पा 
बोल मेरी मछली कितना पानी 
वो नन्हा सा राजकुमार 
वो परियो की कहानी 
वो बचपन आज बहुत याद आया 
आज तो कैसा सूनापन है 
खाली चौपाल ,खाली आँगन है 
वो नन्ही चिड़िया भी आज नहीं आयी 
वो नानी का घर ,वो दादी का प्यार 
फिर से पाने को आँखे छलक आयी 
एक -दूजे के लिए आज वक़्त नहीं है 
पर नेटफ्रैंड की कमी नहीं है 
इस तकनीकी दुनिया ने सबकुछ छीन लिया 
नन्हे-मुन्हो से उनका भोला बचपन 
और बड़ो से उनका सुख-चैन 
दुनिया को तो जोड़ा पर 
अपनी ही जड़ो से तोड़ दिया -------------

Monday, September 17, 2018

kuch nagme

तुम नहीं समझोगे 
तन्हाई में भी एक नशा है 
इंतज़ार का भी अपना मज़ा है 
कभी किसी के लिए मिटकर देखो 
सबकुछ खोने में भी एक मज़ा है 
समय कभी नहीं ठहरता ,पर 
कुछ पल के लिए ठहर कर  देखो तुम 
कभी खुद को भुलाकर देखो तुम 
शब्दो से परे एहसास की दुनिया में जाकर देखो तुम 
सिर्फ फलक  को ही न देखो 
कभी इस ज़मी को भी प्यार से देखो तुम 
अपने अंदाज़ से रोज़ जीते हो अपनी ज़िंदगी 
आज मेरी तरह जीकर देखो तुम 
कभी खुद को भुलाकर देखो तुम 
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माँ क्या तू मुझको जन्म ना देगी 
तेरी ही परछाई हु माँ 
क्या तू भी मेरा साथ ना देगी 
माँ बस ज़रा सी हिम्मत कर 
तू  शक्ति है तू दुर्गा है 
यूँ ना दुनिया से डर 
माँ क्या मेरा साथ  देगी 
तू चाहे  तो मैं दुनिया  में आ सकती हूँ 
तेरी हर खवाइश पूरी कर सकती हूँ 
क्या मुझको तू आवाज़ न देगी 
माँ क्या तू मुझको जन्म ना देगी 
सारी दुनिया को मैं जानू 
तेरा अंश हूँ तुझको पहचानूँ 
तेरी कोख में सुरक्षित खुद को पाया 
एक तू है जिसने अपनाया 
क्या मुझे अपने ख्वाब ना देगी 
क्या तू मुझको जन्म ना देगी 
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मनुष्य के जन्म के साथ ही 
शुरू हो जाता है बढ़ना 
रिश्तो का  मायाजाल 
कुछ महीने तक बच्चा सिर्फ 
माँ को जानता है 
बाद में जुड़ते चले जाते हैं रिश्ते 
पापा ,भाई -बहिन ,चाचा ताऊ 
बुआ मौसी मामी। ...... 
और जैसे -जैसे होता है बड़ा 
छूटने लगते हैं रिश्ते 
एक उम्र आती है ऐसी 
जब पति -पत्नी को अपने सिवा 
सब रिश्ते बेमानी लगते हैं 
क्या स्वार्थ पर टिका होता है हर रिश्ता 
बस माँ -बाप का प्यार निस्वार्थ होता है ?
वक़्त के साथ सभी रिश्ते 
लगते हैं छूटने 
रह जाता है बस एक सहारा 
पति पत्नी बन जाते हैं 
जब एक -दूजे  सहारा 
सोचते है तब ज़िंदगी में 
क्या जीता क्या हारा 
अजीब होते हैं रिश्ते ???
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 निराशा में आशा की किरण है मेरी माँ 
मेरा विश्वास ,मेरी ताक़त है मेरी माँ 
मेरी शान मेरी पहचान है मेरी माँ 
मैं हमेशा खुश रहूं ,आगे बढूं 
बस यही एक चाह है उनकी 
मेरी ख़ामोशी भी सुन लेती है मेरी माँ 
दर्द मुझे और रो देती है मेरी माँ 
कितना भी लड़ूँ माँ से 
लाख दुआएं देती मेरी माँ 
पतझड़ में बसंत  एहसास  है 
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किसी ने कहा पहाड़ तोडना मुश्किल है 
किसी ने कहा समुद्र  चीरना मुश्किल है 
 पर सबसे मुश्किल है 
इस दुनिया  को खुश करना 
अजीब  है ये दुनिया 
अजीब है इसके नियम 
किसी की जान जाए तो जाए 
खोट निकालना आदत है इसकी 
जिस दुनिया ने 'सीता मैया 'को भी ना छोड़ा 
की व्यंग्यवाणो की वर्षा 
रामजी ने जानकी को छोड़ा 
कोई खुश क्यों है ?
कोई दुखी क्यों है ?दुनिया को चैन ना आये 
कहीं  की ईट कहीं का रोड़ा 
भानुमति ने कुनबा जोड़ा 
क्यों हुआ ?कैसे हुआ 
ये धुनुष किसने तोडा 
भीड़ ने कभी परिवर्तन नहीं किया 
इतिहास गवाह है 
क्रांति हुई ,युग बदला 
तो किसी एक ने साहस किया है 
एक चिंगारी ही चीर देती है अँधेरा 
जीना है तो कर दुनिया  किनारा 
ज़िंदगी तेरी है बस जिए जा 
झुकेगी दुनिया  तू बस बढे जा 

Sunday, September 16, 2018

-एहसास अनकहे प्यार का

-एहसास अनकहे प्यार का  
 कहानी -एहसास अनकहे प्यार का  

भीड़ से खचाखच भरा नई दिल्ली का रेलवे स्टेशन। कुछ महिलाएं , बच्चें बेंच के पास ही चादर बिछाकर हाथ पर पूरी आचार रखकर खा रहे हैं। बतिया  रहे हैं ,फेरी वाले अपना  अलाप रहें हैं। ..समोसा----समोसा --पानी --ठंडा पानी.. . .    कुछ     यात्री टिकिट खिड़की पर भीड़ का सामना कर रहे हैं। एक वृद्ध महिला सबसे पीछे खड़ी चिल्ला रही थी -"मुझे टिकिट पहले लेने दो ,मेरी गाड़ी छूट जाएगी। "
लम्बी -पतली नेहा इस  भीड़ को देखकर सोचती है -" ऐसा लग रहा है सारे हिन्दुस्तान  ही सफर करना है। "बातूनी नेहा ,अल्हड़ मस्त बचपन मिश्रित जवानी। गजब का आकर्षण था उसकी आँखों में। कोई भी बिना प्रभावित हुए न रहता। देखने में सामान्य लेकिन चुंबकीय व्यक्तित्व से पूर्ण सादगी। उसकी मासूम बोलती आँखे ,नटखट हसी भोला बचपन एक कशिश पैदा करता। 
दोपहर ३ बजे अप्रैल का उमस  मौसम ,पर दिल में गोवा जाने उमंग लिए नेहा ,राजधानी एक्सप्रेस में नेहा अपनी सीट पर पहुंचकर -"अरे आज तो पूरा डिब्बा खाली ,कोई नहीं आया। अरे वाह !पुरे डिब्बे  कहीं भी बैठो या सो जाओ या डांस करो ,शोर मचाओ ,कुछ भी करो। पूरी आज़ादी। ऐसा करती हु सामने वाली खिड़की सीट पर बैठ जाती हूँ ,अकेली सीट है तो अन्य सहयात्रियों के आने का झंझट ही ख़त्म। "
थोड़ी देर में सभी सहयात्री अपना स्थान ले लेते हैं। लोगो की आवाजावी बढ़ जाती है। तभी   युवक नेहा  सामने वाली सीट पर पसर जाता है। नेहा इन सबसे बेखबर खिड़की से बाहर झाँकने  व्यस्त है।  मथुरा  आगे निकलते ही मौसम सुहावना हो गया। ठंडी ठंडी हवा  चलने लगी। ऐसा लग रहा था पेड़ भी ख़ुशी में झूम रहे हों। कहीं ऊँचे पेड़ तो स्वागत करते विस्तृत मैदान कही ऊँची आसमान को छूती बिल्डिंग तो कहीं कलकल बहती नदी। दूर तक फैले हरे खेत ,नाचता हुआ मोर ,तो कहीं धरती आसमान के अद्भुत मिलान का नज़ारा। तेज़ी से भागती ज़िंदगी और उस दुनिया  खोयी नेहा। 
" जामुन लेंगी आप ?"नेहा की तरफ बढ़ाते हुए प्र्शन उछाला उस युवक ने। सपने से जगी नेहा ने उस शख्स को आश्चरय से देखा ,कुछ सोचते हुए -"जान न पहचान बिना बात का मेहमान। ""नहीं "आपका परिचय श्रीमान ?"मेरा नाम शास्वत है भोपाल जा रहा हूँ ,वहीं जॉब करता हूँ। 
" आपको खिड़की से बाहर देखना पसंद है ?"
हाँ जी 
" आपको नई जगह घूमने का शौक है ?"
हाँ 
" आपको संगीत पसंद हैं ?"
हाँ 
कोन सा फनकार ?
अरिजीत सिंह। .. 
क्यों "
कुछ देर शाश्वत को घूरती है -"मेरी मर्ज़ी "मुझे जो पसंद है ,नहीं पसंद है ,आपको क्यों मिर्ची लगी है। नहीं देती तुम्हारे हर क्यों का जबाब " .ऐसा कहकर बाहर देखने लगती है। शास्वत उसकी इस अदा पर मोहित  जाता है और हसने लगता है। नेहा गुस्से से-" है क्यों रहे हो ?" "मेरी मर्ज़ी "शास्वत ने मुस्कराते हुए जबाब दिया। 
ट्रैन समुद्र  पास से गुजर रही है। सूर्य बदलो में छुपा हुआ था। शायद कुछ देर पहले यहाँ बारिश हुई हो। ठंडी हवा के झोंके मदहोश कर रहे थे। कहीं पेड़ो  झुरमुट कही पानी का झरना , तो कही हाथ हिलाकर अभिवादन करते बच्चे नेहा का मन मोह बांधे थे उन खूबसूरत नज़रो में खोयी अपने सपने बन रही थी नेहा। ख़ुशी की चमक से उसका चेहरा प्रतिबिम्बित  रहा था। शास्वत चुप्पी तोड़ते हुए - आप अकेली हैं यहाँ ,कोई साथ में ?"नेहा गुस्से से-" है ना ! मेरा भाई ,अगली सीट पर। "तभी ट्रैन एक लम्बी अँधेरी सुरंग से गुजरी। नेहा  इस सबके लिए तैयार नहीं थी उसकी डर से चीख निकल गयी। 
शास्वत -"अंताक्षरी खेलोगी "
नहीं। जानबूझकर वो गलत लाइन गाता है। टोकते हुए नेहा - एक गाना भी याद नहीं। क्या अंताक्षरी खेलोगे ?ना चाहते  भी नेहा उसके साथ गीत-संगीत ,हसी मज़ाक में व्यस्त जाती है। बीच -बीच में फेरी वाले चिप्स ,लस्सी ,पानी का राग अलापने आजाते। शास्वत ने दो गिलास लस्सी ली. एक गिलास नेहा  को देते हुए -" सफर में एक अजनबी की लस्सी याद रहेगी भले ही नाम भूल जाओ। "
रुको मैं अपने भाई  पैसे लेकर आती हु। " नहीं रहने दो। भाई को क्यों परेशान करती हो। बाद  देना। "ऐसा कहकर वो नेहा को गिलास पकड़ा देता है। दोनों  बीच साहित्य ,राजनीती और समाज की समस्याओ पर बातचीत होती रहती है. . 
रात के नौ बज चुके हैं। नेहा को नींद घेरने लगती है। वो अपने  भाई के पास जाने के लिए कड़ी होती है। ना चाहते हुए भी शास्वत कह उठता है -मत जाओ !रुक जाओ !" नेहा एक क्षण रूकती है मुस्कराती है और गुड नाईट कहकर  चली  जाती है। 
अर्धरात्रि लगभग १२ बजे होंगे नेहा की आँख खुलती है। प्यास  कारन गला सुख रहा था। पानी की खाली बोतल देखकर जैसे ही वो अपने भाई को आवाज़ लगाने के लिए उठती है उसकी नज़र  सीट पर सोये सहयात्री पर पड़ती है. चौंककर -" शास्वत तुम !यहाँ। " मेरी सीट कन्फर्म नहीं थी ,इसलिए उस सीट के स्वामी के आने पर टी टी ने मुझे सीट दे दी। पानी पीना है तुम्हे ? अगले स्टेशन पर रुकने पर मै ला दूंगा। "मुस्कराते हुए शास्वत  जबाब दिया। और अपनी कोहनियो में अपने चेहरे  थामे एकटक नेहा को निहारने लगा।  खुले लम्बे बाल ,उनपर विलायती  परियो वाली कैप ,नींद  से अलसाया सौंदर्य। शर्म से झुकी पलकें। झटके गाड़ी रूकती है और उसका धयान टूटता है। वो स्टेशन से  लेकर आता है और नेहा को दे देता है। पानी पीकर सो जाती है नेहा। 
सुबह जब शास्वत की आँख खुलती है ,उसका स्टेशन आ गया था सायद। हड़बड़ाकर उठता है।  उतरना था। नेहा अपनी सीट पर बैठी अखबार पढ़ते हुए उसे कनखियों से देखती है। बुझे  मन से सामान पैक करता है। ने हा  देखता है पर कुछ कह नहीं पाता। आँखों ही आँखों में विदा ले रहा हो जैसे। दोनों खामोश कोई सबद नहीं। बिना कुछ कहे गेट की तरफ बढ़ जाता है। ट्रैन रुकने में अभी समय है। गति धीमी हो चुकी है। नेहा अपनी सीट पर अपने भाई से बातें करने में व्यस्त हैं। तभी  बच्चा उसके पास आकर कहता है -दी आपको वहां  बुला रहा है। " चौंककर नेहा -"मुझे " अभी आती हु भाई। 
गेट के पास शास्वत को नेहा-"तुम ". 
"हाँ !अभी स्टेशन नहीं आया। यही बैठ जाओ। कुछ कहना है। "
शाश्वत उसे रुकने  का इशारा करता है। नेहा शरमाते हुए वहीं बैठ जाती है। 
शास्वत -" तुम्हे कुछ अजीब  लग रहा ?कुछ कहोगी नहीं ?"
नेहा - हां मुझे भी अजीब सा लग रहा है। समझ नहीं आ रहा पर क्या !
शास्वत -" अब हम कभी नहीं मिलेंगे शायद !दो विपरीत दिशाएं कहाँ मिलती हैं बस यह छोटी सी मुलाकात याद रखना। कुछ कहो नेहा ". ....... निशब्द ख़ामोशी ठहर जाती है दोनों के बीच। गाड़ी  जाती है। एक बार रुककर नेहा को निहारता है कुछ कहना चाहता हो जैसे  पर बिना कहे मुस्कराकर चले जाता है। नेहा उसे दूर तक जाते हुए देखती रहती है 

वंदना शर्मा 

Tuesday, September 11, 2018

दीवानगी ,पागलपन या

क्या कहे इसे 
दीवानगी ,पागलपन या अदम्य साहस 
मूर्खता तो नहीं कह सकते 
जब सोच- समझकर खुद पिया जाता है ज़हर 
पता है इस राह की मंजिल नहीं 
पर रास्ते बहुत खूबसूरत है 
और इंसान जाता है उसी राह 
 खुद को बर्बाद करने की हिम्मत 
सब में कहाँ होती है 
तो क्या कहा जाये इसे 
मोहबत ,इबादत या कुछ और 
इतना मनोबल होता है ु उस समय 
दहकते अंगारो पर भी उसे 
पथ की दहकता नहीं 
किसी की ख़ुशी दिखाई  है 
हँसते -हँसते लुटा देता है अपना सबकुछ 
किसी एक के चेहरे पर लाने को मुस्कान 
आज तक नहीं कर पाया परिभाषित 
कोई भी इंसान 
क्या है ये ?खुद मिटकर भी 
देना दुसरो को मुस्कान 
प्रेम ,इश्क़ ,चाहत और भी 
हैं कई इसके नाम 

पागल होती है लड़कियां

पागल होती है लड़कियां 
बिन सोचे समझे किसी से भी 
प्यार कर लेती है 
फिर उसकी ख़ुशी के लिए 
हो जाती है बर्बाद 
कुछ नहीं बचता उनके पास 
कभी नहीं सोचती अपने बारे में 
रात -दिन खटती रहती है मशीन की तरह 
ना तेल-पानी की ज़रूरत ,न रख -रखाव की 
चौबीस घंटे कोल्हू के बैल की तरह निरंतर 
परिवार रूपी धुरी के चारों ओर घूमती रहती है 
कभी पति की चिंता ,कभी सास की सेवा 
कभी भाई का दुःख याद आता है 
कभी बहन के सपने पुरे करने का ख्याल 
कभी माँ -बाप का फ़र्ज़ याद आता है 
सचमुच पागल ही तो होती है लड़कियां 
इन सबसे परे कभी नहीं सोच पाती 
अपने अस्तित्व के बारे में 
वो क्यों है ?क्या है उनका होना 
और एक दिन इसी तरह 
सो जाती है चिर निद्रा में 
इसी तरह रात -दिन घिसते -घिसते
पागल ही तो होती हैं। ........ 

Friday, September 7, 2018

पागलपन भी ज़रूरी है

कभी पागलपन भी ज़रूरी है 
होश में रहे जब तक ,सहते रहे सब 
ना की शिकायत किसी से 
पर जब होश खोये तो 
क्रांति हुई ,जागी जनता 
कुछ करना है ,या मरना है 
पाना नहीं सब कुछ खोना है 
एक बूँद सागर से मिलने को फ़ना हो गयी 
तोड़ सारी हदें मीरा दीवानी हो गयी 
जब -जब होश गवाया इंसान ने 
धरती डोली अम्बर चकराया 
कान्हा ने गीता का संदेस सुनाया 
कभी -कभी बेड़िया दाल देती है बुद्धि 
लाभ -हानि के चक्र्व्यूह में फंसा देती है बुद्धि 
पर एक क्षण का पागलपन इतिहास बना देता है 
किसी को भगत सिंह ,किसी को राँझा बना देता है 
होश में रहकर भी कहीं होश खो जाये 
तो सोचना कभी ए दोस्तों 
ज़रूरी नहीं समझदारी हर वक़्त ज़िंदगी मे
जीने के लिए कुछ खास पल 
कभी कभी पागलपन भी ज़रूरी है