Sunday, December 9, 2018

एंटीक पीस

बड़े बुजुर्ग कहते हैं विधार्थी जीवन एक तपस्या होता है। मेरा विद्यार्थी जीवन भी एक तप एक साधना काल रहा है। पढ़ने का शौक बहुत था। बचपन में ही चाणक्यनीति ,योगनीति ,सत्यार्थ प्रकाश ,सुख-सागर आदि पढ़ डाले। घर पर धार्मिक माहौल था। आधयात्मिक व् धार्मिक किताबे बहुतायत उपलब्ध थी। 'सादा जीवन उच्च विचार 'यह वाक्य  मन पर ऐसा छप गया मेरी सादगी दुनिया की नज़र में हास का पात्र बन जाती। जिस उम्र में लड़कियों को सजने सवरने का शौक होना चाहिए उस समय मुझ पर वैराग्य व् योगनीति हावी थी। लड़कियों वाले शौक कभी रहे ही नहीं। परिस्तिथियों ने मुझे अंदर से कठोर बना दिया। शुरू से ही मैत्रयी पुष्पा ,ममता कालिया ,रंजना जायसवाल  के विचारो का प्रभाव पड़ा और कुछ सामाजिक कुरीतियों ने ,आस-पास के माहौल ने नारीवादी बना दिया। मैं पुरुषो के इस समाज में अपनी एक पहचान बनाना चाहती थी वो भी अपने दम पर। ज्वेलरी ,मेकअप ,सजना ,सवरना कभी अच्छा नहीं लगा। सब आज भी एंटीक पीस बोलते हैं मुझे। कहते हैं इसे तो संग्रहालय में होना चाहिए। 
कहानी -कवितायेँ पढ़ने का शौक ऐसा था खेलने के स्थान पर कवितायेँ गाकर याद किया करती थी। नवी क्लास में एक कविता अक्सर गुनगुनाती थी " जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह ना जाए " . एक बात और मेरे साथ रही मुझे कोर्स से हटकर साहित्य पढ़ने का शौक था तो अपनी क्लास की कम ,बड़े भैय्या की किताबे ज़्यादा पढ़ती। मुझे अच्छी तरह याद है जब चौथी क्लास में थी तो पांचवी के बच्चो को हिंदी व् गणित पढ़ा देती थी। पापा को कबीर ,रहीम के दोहे मुँहज़बानी याद थे ,शाम को अक्सर हमे सुनाया करते तो मुझे भी कंठस्थ हो गए। अभी भी मुझे कबीर का दर्शन अधिक आकर्षित करता है या यूँ कहिये कबीर के दर्शन को फॉलो करती हूँ। मैं अपनी उम्र की लड़कियों से बहुत पीछे थी समझ में ,किताबी ज्ञान तो बहुत था पर दुनियादारी की बाते काम समझ आती। इंटरवल में सब लड़कियां खेलती और मैं एक कोने में खड़ी छोटे बच्चो को खेलते देख मुस्कराती रहती। आपको आश्चर्य होगा दसवीं तक मेरी कोई दोस्त नहीं थी बोलती सबसे थी पर दोस्ती किसी से नहीं। अकेला रहना अच्छा लगता। अंतर्मुखी थी। फ्री कालांश में टीचर के पास जाकर पढ़ती या उनका कोई काम करा देती। स्टेज पर जाने से इतना डरती कि छठी क्लास में प्रथम स्थान प्राप्त करने पर इनाम लेने स्टेज पर बुलाया गया तो चली तो गयी पर नजरे उठाकर भीड़ को देखने की हिम्मत नहीं हुई। चुपचाप स्टेज के पीछे से निकल ली। मैं अक्सर अपने सपनो की दुनिया में खोयी रहती। एक बार क्या हुआ नवीं क्लास में साइकिल से जाती थी ,लेकिन विचारो में खोयी पैदल वाली लड़कियों के साथ स्कूल से कब बाहर आ गयी पता ही नहीं चला ,जब साथ की लड़कियों को साइकिल से जाते देखा तब याद आया मैं भी तो साइकिल से आयी थी। सादगी की मिसाल कहा जाता मुझे ,इतने लम्बे ढीले -ढीले सूट पहनती बालो में नारियल तेल लगा हुआ ,बाल हमेशा बंधे हुए ,कभी काजल भी नहीं लगाया ,क्रीम -पॉउडर तो दूर की बात। बी. एससी  तो सहशिक्षा कॉलेज से की लेकिन वहां भी डरपोक लड़की की तरह बस क्लास दी और सीधे घर। टीचर सब बहुत प्यार करते थे क्यूंकि काम समय पर करती और उनके कार्य में सहयोग भी करा देती। केमिस्ट्री के प्रैक्टिकल में लड़कियां वैज्ञानिक बोलती मुझे मैं किताब पढ़कर उलटे -सीधे कारनामे जो करती। फिजिक्स में भी सब लड़किया मेरी कॉपी लेती ,मेरी गड़ना सटीक जो रहती और सबसे पहले चेक होती। स्टेज पर जाने का आत्मविश्वास आया जब पुनः मैं कन्या महाविद्यालय से पत्रकारिता का कोर्स करने गयी। पत्रकारिता में प्रवेश मेरे जीवन का टर्निंग पॉइंट रहा। मेरा व्यक्तित्व निखर कर आया। स्टेज पर अभिनय भी किया ,भाषण भी दिए ,रिपोर्टिंग भी की ,कैमरा भी फेस किया। उस वर्ष दैनिक जागरण पाठकनामा में रोज मेरे लेख छपते ,आकशवाणी में काव्यपाठ भी किये। चाणक्य विचार में मेरी पहली कविता छपी थी। फिर तो छपने का ऐसा चस्का लगा ,विभिन पात्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशित हुई। बिजनौर के प्रसिद्ध समाचारपत्र 'चिंगारी ' में प्रूफरीडिंग भी की। मजे की बात कार्यस्थल पर सब मुझे बच्ची समझते जब तक उन्हें न बताया गया कि मैं प्रूफ रीडर हूँ सादगी और भोलेपन का फायदा भी बहुत मिला। एक बार बिजली का बिल जमा करने लाइन में लगी। बहुत लम्बी लाइन थी। भीड़ ने बच्ची समझकर -" पहले इस बच्ची का जमा करा दो " मेरा करा दिया जबकि उस समय एम ए हिंदी से कर रही थी। २००९ में अपने ही कॉलेज में प्रवक्ता के रूप में नियुक्त हुई ,लेकिन समस्या वही मुझसे बड़ी मेरी स्टूडेंट थी। छात्राओं के बीच खड़ी हो जाऊं तो कोई ना पहचाने। सौभाग्य से प्राचार्या ने उसी वर्ष छात्राओं के लिए ड्रेस कोड लागू किया था और मेरे लिए साड़ी पहनना अनिवार्य। एक तो मैं दुबली पतली उस पर वो भोली सी सूरत। 
बी एड की भी बहुत सूंदर यादें हैं। सहशिक्षा महाविद्यालय तह विवेक कॉलेज बिजनौर। अनुशाषन व् पढाई के लिए प्रसिद्ध। १०० विधार्थी थे हम बी एड क्लास में ,प्रचार्य महोदय बड़े सख्त थे। छुट्टी के लिए आवेदन हिंदी में करना ज़रूरी था वो भी एक दिन पहले। अब आजकल के बच्चे अंग्रेजी में लिखने के अभ्यस्त होते हैं। मेरी हिंदी अच्छी होने के कारन सब मुझसे ही आवेदन लिखवाते क्यूंकि प्राचार्य का सख्त आदेश था वर्तनी में गलती हुई तो छुट्टी कैंसिल। इसलिए मैं अपनी क्लास में लोकप्रिय थी और एक आदत से जानी जाती थी मैं वो थी सभी को नमस्ते करने की आदत। क्लास में सहपाठी एक दूजे को है हेलो से विश करते और मुझे नमस्ते मैम बोलते। मनोविज्ञान के सर मेरे प्रश्नो से बड़ा परेशां रहते। कभी कभी मेरे सवाल उन्हें निरुत्तर कर देते। इसलिए व्याख्यान के अंत में मुझसे ज़रूर पूछते कोई संदेह /समस्या तो नहीं। सब समझ आया। एक बार क्या हुआ सुबह प्राथना सभा में शास्त्रीय संगीत पर पांच मिनट की मौन ध्यान होती थी फिर राष्टगान। एक दिन तकनीकी खराबी आने से कैसेट नहीं चला ,कठिन समस्या स्टाफ के सामने ,प्राथना कैसे हो। प्रचार्य ने सभी को सम्बोधित किया कोई भी स्टेज पर आकर प्राथना करए। कोई भी विद्यार्थी नहीं आया। सर का चेहरा गुस्से से लाल। बी एड विभाग की आन दांव पर लगी। हिम्मत करके मैं स्टेज पर पहुंची और अकेले ही 'हे शारदे माँ। ...... 'गाना शुरू किया। फिर राष्ट्रगान कराया। सबने तालियां बजाई और प्रसंशा भी की।  लेकिन बाद जब भी कभी कैसेट ख़राब होता सर मुझे ही बुलाते प्राथना पूर्ण करने के लिए। बचपन की वो शर्मीली लड़की आज इतनी मुखर वक्ता है ,इतना बोलती है सब टोकते हैं ,'उफ़ बहुत बोलती है '.. शर्त लगाई जाती है यह लड़की दो मिनट चुप नहीं रह सकती। कॉलेज के वो दिन बहुत याद आते हैं। परीक्षा के दिनों में वो रातों को जागना ,सारे दिन पढ़ना ,परीक्षा कक्ष में तीन घंटे लगतार लिखना ,घर आकर पूछे जाने पर पेपर कैसा हुआ ?अच्छा हुआ ,बढ़िया कहना। पापा का चिढ़ाना 'ये तो रिजल्ट बताएगा ',जुलाई में नयी क्लास में आने की ख़ुशी ,बारिश में  भीगते हुए टूशन जाना। स्कूल की कैंटीन  २ रुपए का समोसा खाना और छुट्टी में स्कूल के बाहर पचास पैसे की आइसक्रीम खाकर शहेंशाह जैसा खुश होना। परीक्षा खत्म होने पर रातों को छत पर गप्पे लड़ाना। किताबों में छुपकर कॉमिक्स पढ़ना ,पकडे जाने पर मम्मी की डॉट खाना। कितना याद आता है वो गुजरा जमाना। क्लास में सबसे आगे की बेंच पर बैठने के लिए लड़ना ,टीचर डे पर मैम के लिए खुद हाथ से कार्ड बनाना। नए साल पर एक ही शेर सभी बच्चो को लिखकर देना। साइकिल से गिरना और कोई देख ना ले इस डर से तुरंत खड़े हो जाना। कॉपी में वैरी गुड पाकर फुले न समाना। क्लास का मॉनिटर बनकर इतराना। कितना याद आता है वो गुजरा जमाना. 

Thursday, October 11, 2018

क्युकी तुम कविता नहीं लिखते --

ज़िंदगी की कश्मकश में कुछ ऐसा उलझे हम 
कुछ दुनिया हमको भूल गयी और 
कुछ दुनिया को भूल गए हम 
कब दिन ढला कब रात आयी 
दैनिक कार्य-पिटारो में अपनी सुध भी ना आयी 
गमो में भी मुस्करा दिए 
जान -बूझकर काँटों पर पग बढ़ा दिए 
पर खुलकर कब हँसे 
वो खिलखिलाहट तो भूल गए हम 
जाने कैसी उलझी ज़िंदगी 
सुलझाने में ,ज़िंदगी को 
और उलझती गयी ज़िंदगी 
फ़र्ज़ ,क़र्ज़ और न जाने कितनी जिम्मेदारी 
सीढ़ी दर सीढ़ी मंजिल चढ़ी ज़िंदगी 
गिरकर फिसली , फिर उठ बढ़ चली ज़िंदगी 
औरो को समझने में उलझे रहे 
पर खुद को ही न समझे हम 
ज़िंदगी की कश्मकश में कुछ ऐसा उलझे हम  
खुशियां चारो ओर बिखरी थी 
हर जगह मृगमरीचिका सा दौड़े 
मन की ख़ुशी न देखी बाहरी चकाचोंध में उलझे हम 
सबका साथ दिया ,किसी को तनहा न छोड़ा 
फिर भी क्यों तन्हाई से दो -चार हुए हम 
बस एक ज़िद थी खुद से ही जीतने की 
ना जाने क्यों खुद से ही हार गए हम 
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तुम नहीं समझोगे 
क्या कहती है रात की तन्हाई 
तारो की ख़ामोशी भी करती है बाते 
तुम नहीं समझोगे  
चाँद कैसे बिखेर देता है दूधिया हँसी 
आसमां भी होता है व्याकुल 
धरती से एक मुलाकात के लिए 
पर तुम नहीं समझोगे 
सुबह की ठंडी हवा जब 
तन को छूकर गुजरती है 
पत्तों पर ओंस की बुँदे जब चमकती है 
चिड़िया भी ची ची कर कुछ गाती है 
फूल भी हँसते है और 
हवा भी गुनगुनाती है 
पर तुम नहीं समझोगे 
बच्चों की मासूम हंसी 
उनकी तोतली बोली 
उनकी आँखों में तैरते सपने 
बारिश की बूंदो को 
तुम नहीं समझोगे 
छोटी छोटी बाते कितनी खुशिया देती है 
एक ज़रा सी बात आँखे नम कर देती है 
कभी कभी आँखे भी कुछ कहती है 
पर इन आँखों की जुबां को 
तुम नहीं समझोगे 
तुम नहीं समझोगे ----
क्युकी तुम कविता नहीं लिखते --- 

Thursday, October 4, 2018

सबके घर खुशहाली आये

इस दिवाली सबके घर जगमगाये 
किसी की आँख में आंसू न आये 
जो आँखे तरस गयी किसी के इंतज़ार में 
उनके आँगन मिलान की बेला आये 
इस दिवाली सबके घर जगमगाये 
कोई भूखा न रहे ,कोई तनहा न रहे 
आओ सब मिलकर ,खुशियों के दीप जलाये 
सबका सपना पूरा हो ,ना शिकवा रहे किसी से 
न कोई आंसू बहाये 
इस दिवाली सबके घर जगमगाये  
सबके घर खुशहाली आये 
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कभी रहता था दिवाली का इंतज़ार 
गिनते रहते थे दिन बार बार 
सबसे छुपकर करते थे तैयारी 
घर को सजाते थे बारी बारी 
कहा गए वो बचपन के दिन 
ना वो इंतज़ार रहा , ना वो पागलपन 
सबकी ज़िंदगी में है बड़ी उलझन 
कैसे करें स्वागत इन खुशियों का 
वक़्त कहाँ है अपने लिए सोचने का 
कब दिन ढला कब रात आयी 
कब नींद से जागी ,कब नींद आयी 
सोचती हूँ कर दू बगावत खुद से 
छोड़ सारी दुनिया जुड़ जाऊं खुद से 
कुछ पल चुरा लू अपने लिए 
कुछ पल जी लू अपने लिए 
बड़ी कमजोर है ज़िंदगी की डोर 
क्यों न इसके टूटने से पहले 
सपनो को सजाया जाये 
रुख खुशियों का मोड़ दे अपनी ओर  

Wednesday, October 3, 2018

विवेकानन्द ने कहा था- ”संसार की प्रत्येक चीज अच्छी है, पवित्र है और सुन्दर है यदि आपको कुछ बुरा दिखाई देता है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह चीज बुरी है । इसका अर्थ यह है कि आपने उसे सही रोशनी में नहीं देखा ।” द्वितीय विश्वयुद्ध के समय ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ, जो युद्ध की त्रासदी को प्रदर्शित करने में सक्षम थीं; ऐसी फिल्मों से समाज को सार्थक सन्देश मिलता है ।
सामाजिक बुराइयों को दूर करने में सिनेमा सक्षम है । दहेज प्रथा और इस जैसी अन्य सामाजिक समस्याओं का फिल्मों में चित्रण कर कई बार परम्परागत बुराइयों का विरोध किया गया है । समसामयिक विषयों को लेकर भी सिनेमा निर्माण सामान्यतया होता रहा है ।
भारत की पहली फिल्म ‘राजा हीरश्चन्द्र’ थी । दादा साहब फाल्के द्वारा यह मूक वर्ष 1913 में बनाई गई थी । उन दिनों फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं समझा जाता था, तब महिला किरदार भी पुरुष ही निभाते थे जब फाल्के र्जा से कोई यह अता कि आप क्या करते हैं, तब वे कहते थे – ”एक हरिश्चन्द्र की फैक्ट्री है, हम उसी में काम करते है ।”
उन्होंने फिल्म में काम करने वाले सभी पुरुषकर्मियों को भी यही कहने की सलाह दे रखी थी, किन्तु धीरे-धीरे फिल्मों का समाज पर सकारात्मक प्रभाव देख इनके प्रति लोगों का दृष्टिकोण भी सकारात्मक होता गया । भारत में इम्पीरियल फिल्म कम्पनी द्वारा आर्देशिर ईरानी के निर्देशन में वर्ष 1931 में पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ बनाई गई ।
प्रारम्भिक दौर में भारत में पौराणिक एवं ऐतिहासिक फिल्मों का बोल-बाला रहा, किन्तु समय बीतने के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक एवं साहित्यिक फिल्मों का भी बडी संख्या में निर्माण किया जाने लगा । छत्रपति शिवाजी, झाँसी की रानी, मुगले आजम, मदर इण्डिया आदि फिल्मों ने समाज पर अपना गहरा प्रभाव डाला ।
उन्नीसवीं सदी के साठ-सत्तर एवं उसके बाद के कुछ दशकों में अनेक ऐसे भारतीय फिल्मकार हुए, जिन्होंने कई सार्थक एवं समाजोपयोगी फिल्मों का निर्माण किया । सत्यजीत राय (पाथेर पाँचाली, चारुलता, शतरंज के खिलाड़ी), वी. शान्ताराम (डॉ कोटनिस की अमर कहानी, दो आँखें बारह हाथ, शकुन्तला), ऋत्विक घटक मेधा ढाके तारा), मृणाल सेन (ओकी उरी कथा), अडूर गोपाल कृष्णन (स्वयंवरम्), श्याम बेनेगल (अंकुर, निशान्त, सूरज का सातवाँ घोड़ा), बासु भट्‌टाचार्य (तीसरी कसम) गुरुदत (प्यासा, कागज के फूल, साहब, बीवी और गुलाम), विमल राय (दो बीघा जमीन, बन्दिनी, मधुमती) भारत के कुछ ऐसे ही प्रसिद्ध फिल्मकार है ।
चूँकि सिनेमा के निर्माण में निर्माता को अत्यधिक धन निवेश करना पड़ता है, इसलिए वह लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से कुछ ऐसी बातों को भी सिनेमा में जगह देना शुरू करता है, जो भले ही समाज का स्वच्छ मनोरंजन न करती हो, पर जिन्हें देखने बाले लोगों की संख्या अधिक हो ।
गीत-संगीत, नाटकीयता एवं मार-धाड़ से भरपूर फिल्मों का निर्माण भी अधिक दर्शक संख्या को ध्यान में रखकर किया जाता है । जिसे सार्थक और समाजोपयोगी सिनेमा कहा जाता है, बह आम आदमी की समझ से भी बाहर होता है एवं ऐसे सिनेमा में आम आदमी की रुचि भी नहीं होती, इसलिए समाजोपयोगी सिनेमा के निर्माण में लगे धन की वापसी की प्रायः कोई सम्भावना नहीं होती ।
इन्हीं कारणों से निर्माता ऐसी फिल्मों के निर्माण से बचते हैं । बावजूद इसके कुछ ऐसे निर्माता भी हैं, जिन्होंने समाज के खास वर्ग को ध्यान में रखकर सिनेमा का निर्माण किया, जिससे न केवल सिनेमा का, बल्कि समाज का भी भला हुआ ।
ऐसी कई फिल्मों के बारे में सत्यजीत राय कहते हैं – ”देश में प्रदर्शित किए जाने पर मेरी जो फिल्म में लागत भी नहीं वसूल पाती, उनका प्रदर्शन विदेश में किया जाता है, जिससे घाटे की भरपाई हो जाती है ।” वर्तमान समय में ऐसे फिल्म निर्माताओं में प्रकाश झा एवं मधुर भण्डारकर का नाम लिया जा सकता है । इनकी फिल्मों में भी आधुनिक समाज को भली-भाँति प्रतिबिम्बित किया जाता है ।
पिछले कुछ दशकों से भारतीय समाज में राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक भ्रष्टाचार में वृद्धि हुई है, इसका असर इस दौरान निर्मित फिल्मों पर भी दिखाई पड़ा हे । फिल्मों में आजकल सेक्स और हिंसा को कहानी का आधार बनाया जाने लगा है ।
तकनीकी दृष्टिकोण से देखा जाए, तो हिंसा एवं सेक्स को अन्य रूप में भी कहानी का हिस्सा बनाया जा सकता हो किन्तु युवा वर्ग को आकर्षित कर धन कमाने के उद्देश्य से जान-अकर सिनेमा में इस प्रकार के चित्रांकन पर जोर दिया जाता है । इसका कुप्रभाव समाज पर भी पड़ता है ।
दुर्बल चरित्र वाले लोग फिल्मों में दिखाए जाने वाले अश्लील एवं हिंसात्मक दृश्यों को देखकर व्यावहारिक दुनिया में भी ऊल-जलूल हरकत करने लगते है । इस प्रकार, नकारात्मक फिल्मों से समाज में अपराध का ग्राफ भी प्रभावित होने लगता है ।
इसलिए फिल्म निर्माता, निर्देशक एवं लेखक को हमेशा इसका ध्यान रखना चाहिए कि उनकी फिल्म में किसी भी रूप में समाज को नुकसान न पहुँचाने पाएँ, उन्हें यह भी समझना होगा कि फिल्मों में अपराध एवं हिंसा को कहानी का विषय बनाने का उद्देश्य उन दुर्गुणों की समाप्ति होती है न कि उनको बढावा देना ।
इस सन्दर्भ में फिल्म निर्देशक का दायित्व सबसे अहम् होता है, क्योंकि वह फिल्म के उद्देश्य और समाज पर पड़ने वाले उसके प्रभाव को भली-भांति जानता है । सत्यजीत राय का भी मानना है कि फिल्म की सबसे सूक्ष्म और गहरी अनुभूति केवल निर्देशक ही कर सकता है ।
वर्तमान समय में भारतीय फिल्म उद्योग विश्व में दूसरे स्थान पर है । आज हमारी फिल्मों को ऑस्कर पुरस्कार मिल रहे हैं । यह हम भारतीयों के लिए गर्व की बात है । निर्देशन, तकनीक, फिल्मांकन, लेखन, संगीत आदि सभी स्तरों पर हमारी फिल्म में विश्व स्तरीय हैं ।
आज हमारे निर्देशकों, अभिनय करने बाले कलाकारों आदि को न सिर्फ हॉलीबुड से बुलावा आ रहा है, बल्कि धीरे-धीर वे विश्व स्तर पर स्वापित भी होने लगे है । आज आम भारतीयों द्वारा फिल्मों से जुड़े लोगों को काफी महत्व दिया जाता है । अमिताभ बच्चन और ऐश्वर्या राय द्वारा पोलियो मुक्ति अभियान के अन्तर्गत कहे गए शब्दों ‘दो बूंद जिन्दगी के’ का समाज पर स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है ।
लता मंगेशकर, आशा भोंसले, मोहम्मद रफ़ी, मुकेश आदि फिल्म से जुड़े गायक-गायिकाओं के गाए गीत लोगों की जुबान पर सहज ही आ जाते हैं । स्वतन्त्रता दिबस हो, गणतन्त्र दिवस हो या फिर रक्षा बन्धन जैसे अन्य त्योहार, इन अवसरों पर भारतीय फिल्मों के गीत का बजना या गाया जाना हमारी संस्कृति का अंग बन चुका है । आज देश की सभी राजनीतिक पार्टियों में फिल्मी हस्तियों को अपनी ओर आकर्षित करने की होड़ लगी है ।
आज देश के बुद्धिजीवी वर्गों द्वारा ‘नो वन किल्ड जेसिका’, ‘नॉक आउट’, ‘पीपली लाइव’, ‘तारे जमीं पर’ जैसी फिल्में सराही जा रही है । ‘नो वन किल्ड जेसिका’ में मीडिया के प्रभाव, कानून के अन्धेपन एवं जनता की शक्ति को चित्रित किया गया, तो ‘नॉक आउट’ में विदेशों में जमा भारतीय धन का कच्चा चिल्ला खोला गया और ‘पीपली लाइव’ ने पिछले कुछ वर्षों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बढी ‘पीत पत्रकारिता’ को जीवन्त कर दिखाया ।
ऐसी फिल्मों का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है एवं लोग सिनेमा से शिक्षा ग्रहण कर समाज सुधार के लिए कटिबद्ध होते हैं । इस प्रकार, आज भारत में बनाई जाने वाली स्वस्थ व साफ-सुथरी फिल्में सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करने की दिशा में भी कारगर सिद्ध हो रही है । ऐसे में भारतीय फिल्म निर्माताओं द्वारा निर्मित की जा रही फिल्मों से देशवासियों की उम्मीदें काफी बढ़ गई हैं, जो भारतीय फिल्म उद्योग के लिए सकारात्मक भी है 
बदलाव एक विरोधाभासी चीज़ है. इसे ख़ास संदर्भ में समझने की ज़रूरत है.
यहां संदर्भ एनिमेशन या तकनीक के इस्तेमाल, स्क्रिप्ट के प्रकार और नग्नता का स्तर नहीं है.
हम लोग जीतेंद्र-श्रीदेवी-कादर खान या गोविंदा-डेविड धवन की इतनी फ़िल्मों को पचा चुके हैं कि हम कितनी भी अजीब फ़िल्म या गाने को झेल सकते हैं.
हमें बदलाव का विश्लेषण उपभोक्ता के गहरे अर्थ के संदर्भ में करना होगा.
दिलवाले... अपने समय में बहुत पसंद की गई थी
ठीक ही कहा गया है कि सिनेमा या मनोरंजन का कोई भी माध्यम, समाज में बदलाव के आधार पर ही बदलता है.
हम कई तरह के मज़ेदार बदलावों को देख रहे हैं और सामाजिक अर्थों में बदलाव के कई नए संदर्भ भी उभर रहे हैं. हम भारतीय सिनेमा को इससे अलग-थलग करके नहीं रख सकते.
चलिए देखते हैं कि पिछले कुछ दशकों में सांस्कृतिक मायनों में क्या बदलाव आए हैं और उनका भारतीय सिनेमा पर क्या प्रभाव पड़ा है.
यशराज फ़िल्म्स की दो फ़िल्मों, 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' और 'रब ने बना दी जोड़ी' को हम उदाहरण के रूप में लेते हैं.
पहली फ़िल्म में लड़की की मां तक चाहती हैं कि वह लड़के के साथ भाग जाए. वह अपने गहनों की भी तिलांजलि देने को तैयार है (बमुश्किल ही कोई भारतीय महिला ऐसा करेगी).
लेकिन बिल्कुल हिंदी फ़िल्म के हीरो की तरह हीरो लड़की के पिता की मर्ज़ी से ही शादी करने पर अड़ जाता है.
भारतीय समाज में इसे बहुत सम्मानित माना जाता है. घर से भागना उस समय बड़ा हौव्वा माना जाता था.
दूसरी फ़िल्म में पूरी तरह अलग विचार है. हीरो शादीशुदा हीरोइन को कहता है कि अगर वह अपने दब्बू पति के साथ ख़ुश नहीं है तो उसके साथ भाग चले.
शादीशुदा के साथ प्रेम संबंध और भाग जाने का विचार हमें स्वीकार्य हो गया है.
इन्हीं बदलावों को हम बाद की अन्य फ़िल्मों में भी देख सकते हैं.
हमारे समय की दो मशहूर फ़िल्में, 'कॉकटेल' और 'जब तक है जान', इससे आगे बढ़कर लिव-इन संबंध, शादी से पहले सेक्स और 'न उम्र की सीमा हो' वाली प्रेम कहानी को दिखाते हैं.
हालांकि एक दशक पहले 'उम्र की सीमा न रहे' वाली प्रेम कहानी 'लम्हे' को भारतीय दर्शकों ने नकार दिया था.
लेकिन अब अपनी उम्र से दुगने व्यक्ति के साथ संबंध और शादी से कोई फ़र्क नहीं पड़ता (सैफ़ अली और करीना की उम्र देखें!)
आज के दौर में सिनेमा को मनोंरजन के रूप में गिना नही जाता बल्कि उससे कुछ सीखा जाता है। आजकल के युवा फिल्मे देख देख कुछ फिल्मों से समाज तथा युवा-वर्ग पर अच्छा प्रभाव भी पड़ता है ।आजकल सिनेमाघरों में लोगों के मन पर एक बड़ा प्रभाव छोड़ती है. युवाओं पर सिनेमा के प्रभाव को आसानी से देखा जा सकता है। इतना ही नहीं उसके प्रभाव ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के वृद्ध लोगों पर और बच्चों पर भी अच्छी तरह से देखा जा सकता है. एक स्वस्थ शौक को स्वागत किया जा सकता है लेकिन अक्सर फिल्मों को देखना एक अच्छा शौक नहीं है. सामाजिक विषयों से संबंधित फिल्में युवावर्ग में देशभक्ति, खेल, राष्ट्रीय एकता और मानव-मूल्यों का प्रसार करती हैं ।  हाल ही में आई सुल्तान ने युवाओं को बताया की अगर हम ठान ले की हमें यह काम करना तो हम उस चीज को पाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। फिल्मों ने हमारे सामाजिक जीवन को एक अलग धारणा में पेश किया है। इसमें सामाजिक उद्देश्य प्रधान फिल्मों के निर्माण की आवश्यकता है । ऐसी फिल्मी ऊबाऊ नहीं होनी चाहिए, क्योंकि दर्शक वर्ग उनके प्रति आकर्षित नहीं होगा । इसलिए सामाजिक संदेश वर्ग उनके प्रति आकर्षित नही होगा । इसलिए सामाजिक संदेश की फिल्में भी मनोरंजन से भरपूर होनी चाहिए । मार्गदर्शन भी होना चाहिए । जो आज के सिनेमा में नजर आ रहा है। युवा वर्ग देश का भावी निर्माता है, उन पर फिल्मों के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए उन फिल्मों का निर्माण होना चाहिए, जिनमें मनोरंजन और मार्गदर्शन दोनों का सम्मिलित पुट है । हिंसा की भावना समाज की प्रगति में बाधक है । युवा वर्ग के अति संवेदनशील मस्तिष्क को सामाजिक और नैतिक गुणों से भरपूर फिल्मों के माध्यम से योग्य नागरिक के रूप में तैयार किया जा सकता है । यही समय है जबकि फिल्म निर्माता अपने दायित्व को समझें और अच्छी अच्छी फिल्मों का निर्माण करें ।इधर कुछ ऐसी फिल्में भी बन रही हैं, जिन्होंने सिनेमा और समाज के बने-बनाए ढांचों को तोड़ा है।
हंसी तो फंसी’, ‘हाईवे’ और ‘क्वीन’ एयरलिफ्ट सुल्तान जैसी फिल्मों ने बिल्कुल नए तरह के सिनेमा का विकास किया है। ये फिल्में न सिर्फ जेंडर के सवालों से टकराती, बल्कि पूरी सामाजिक व्यवस्था से जूझती हैं। इन फिल्मों ने स्त्री नायकत्व को रचा है। सुखद यह है कि भारतीय दर्शकों ने इस सिनेमा को दिल खोल कर सराहा है। इन्होंने व्यवसाय भी खूब किया। इन फिल्मों ने मानो समांतर सिनेमा की अवधारणा को ही समाप्त कर दिया। कला सिनेमा और मुख्यधारा सिनेमा के अंतर को मिटा दिया है। कला फिल्में कही जाने वाली उन फिल्मों का दौर बीत गया लगता है, जिनका दर्शक एक खास किस्म का अभिजात वर्ग हुआ करता था। आज का सिनेमा अगर मुख्यधारा या व्यावसायिक सिनेमा है तो साथ ही वह अपने भीतर कला फिल्मों की सादगी और सौंदर्य को भी समेटे है। अब हिंदी सिनेमा ने दर्शकों की बेचैनी को समझा है, उसे आवाज दी है ।अली अब्बास जफर अनुराग कश्यप, दिवाकर बनर्जी, इम्तियाज अली जैसे युवा निर्देशकों और जोया अख्तर, रीमा कागती, किरण राव जैसी सशक्त महिला फिल्मकारों ने हिंदी सिनेमा को तीखे तेवर दिए हैं। उसके रंग-ढंग बदले हैं। इनकी स्त्रियां जीने के नए रास्ते और उड़ने को नया आसमान ढूंढ़ रही हैं। दर्शक भी रोते-बिसूरते, हर वक्त अपने दुखड़े सुनाते चरित्रों पर कुछ खास मुग्ध नहीं हो रहा। उसे भी पात्रों के सशक्त व्यक्तित्व की खोज है।…
सिनेमा के बहुत सारे फायदे के साथ में नुकसान है इस कारण फिल्म निर्माताओं को इस ओर विशेष ध्यान देना चाहिए कि वह ऐसी फिल्मों का निर्माण ना करे जिससे समाज की सोच को,समाज को नुकसान पहुंचता है.हमारे देश के नौजवानों को भी इस तरह की फिल्में देखने से बचना चाहिए जिससे उन्हें नुकसान ना हो और हमें हमेशा यह बात याद रखना चाहिए कि हमारा देश सबसे अच्छा देश है हमारे देश की संस्कृति, सभ्यता,धार्मिक रीति रिवाज हर एक देश से ऊंचे हैं इसलिए हमें दूसरे देशों की तरह नहीं बदलना चाहिए बल्कि अपने आपकी तरह दूसरे देश वासियों को बदलना चाहिए लेकिन हम बिल्कुल ऐसा नहीं करते हम बस पश्चिमी देशों की तरह अपने आप को बदल रहे हैं यह बिल्कुल सही नहीं है.हमें हमारे देश को आगे बढ़ाना चाहिए, देश की संस्कृति,सभ्यता को आगे बढ़ाना चाहिए और फिल्म निर्माताओं को भी कोशिश करना चाहिए कि ऐसी फिल्मों का प्रदर्शन करें जिससे देश के पहनावे, देश की संस्कृति आगे बढ़े और देश का विकास हो.
सिनेमा के बहुत सारे फायदे के साथ में नुकसान है इस कारण फिल्म निर्माताओं को इस ओर विशेष ध्यान देना चाहिए कि वह ऐसी फिल्मों का निर्माण ना करे जिससे समाज की सोच को,समाज को नुकसान पहुंचता है.हमारे देश के नौजवानों को भी इस तरह की फिल्में देखने से बचना चाहिए जिससे उन्हें नुकसान ना हो और हमें हमेशा यह बात याद रखना चाहिए कि हमारा देश सबसे अच्छा देश है हमारे देश की संस्कृति, सभ्यता,धार्मिक रीति रिवाज हर एक देश से ऊंचे हैं इसलिए हमें दूसरे देशों की तरह नहीं बदलना चाहिए बल्कि अपने आपकी तरह दूसरे देश वासियों को बदलना चाहिए लेकिन हम बिल्कुल ऐसा नहीं करते हम बस पश्चिमी देशों की तरह अपने आप को बदल रहे हैं यह बिल्कुल सही नहीं है.हमें हमारे देश को आगे बढ़ाना चाहिए, देश की संस्कृति,सभ्यता को आगे बढ़ाना चाहिए और फिल्म निर्माताओं को भी कोशिश करना चाहिए कि ऐसी फिल्मों का प्रदर्शन करें जिससे देश के पहनावे, देश की संस्कृति आगे बढ़े और देश का विकास हो.


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Thursday, September 27, 2018

जिए तो ज़रा बस एक पल -

{ पहाड़ी स्त्रियों को समर्पित }
इचक दाना -विचक दाना 
सुनो क्या कहता है मीठा दाना 
रंग लाई अपनी मेहनत 
देंगी गवाही गेंहू की ये कलियाँ 
लहलहाती फसल हमारी 
सींचा इसे हमने अपने सपनो से 
सुनो सखी मान गयी है सारी दुनिया 
हँस-हँस कर गारही हैं कलियाँ 
जीवन रोपती मेहनतकश स्त्रियां 
जीवन काटती हैं मेहनतकश स्त्रियां 
सुनो सखी !सबको ज़रा बताना 
इचक दाना -विचक दाना  
---------------------------------------------------
मानो या न मानो 
बहुत कुछ है 
कहने को 
आपके मन में भी 
कुछ मेरे मन में भी 
ये बात और है 
तुम सुनना नहीं चाहते 
ना अपने दिल की 
ना मेरे दिल की 
कुछ गलत हूँ मैं भी 
तो कुछ तुम भी 
साथ ना चले तुम 
न चले हम 
रास्ता भी एक 
मंजिल भी एक 
तो क्यों ना चले 
साथ -साथ 
हम-तुम ,तुम-हम 
बोलो ना -----
----------------------------------------
मंजिल सामने है 
राह का भी ज्ञान है 
फिर क्यों पग उस राह से अनजान है 
एक अजीब सा भय मन को बांधे है 
लगता है कभी 
ना नीचे धरती है ,ना ऊपर आसमान है 
खंड -खंड हुई ज़िंदगी 
जोड़ना इनको क्या इतना आसान है 
अजीब मोड़ है ज़िंदगी का 
लिखा तो बहुत ,फिर भी कोरा कागज 
सोचकर मन ये बहुत हैरान है 
अनजाने चेहरों के बीच 
ढूंढती आँखे खुद अपनी पहचान है 
मंजिल सामने है  
फिर क्यों पग उस राह से अनजान है 
----------------------------------------------------
गूंजता रहता है सारे दिन 
बच्चों की किलकारियों से एक पार्क 
मेरे घर की खिड़की से झांकता हुआ 
कुछ गुनगुनाता रहता है 
कर देता है भांग मेरी ख़ामोशी 
इधर -उधर भागते ,दौडते बच्चे 
कितने बेफिक्र ,मस्त 
कोई चिंता नहीं 
कुछ खोने का डर नहीं 
कुछ पाने की लालसा नहीं 
जो कुछ है 
बस यही एक पल है 
इसी पल को जीना चाहते हैं 
काश हम बड़े भी 
बस एक इस पल को जीना सीख जाए 
तो कोई शिकायत ना रहे 
किसी को किसी से 
बस ये पल और 
इस पल में सारी ज़िंदगी ---
जिए तो ज़रा बस एक पल ------
-----------------------------------------------------
अचानक से आये एक वायुयान ने 
माचा दी हलचल आकाश में 
इधर -उधर उड़ने लगे 
बैचेन हो परिंदे 
खो अपनी स्वभाभिक चाल 
हो गए अपने समहू से दूर 
हे निष्ठुर मानव 
क्या ज़मीन कम लगी तुझे 
धरती पे क्या कम था तेरा आतंक 
कि कर दी दखल 
तूने परिंदो के जहाँ में 
कम से कम इस जहाँ को तो बक्शा होता 
निसंदेह मानव ने प्रगति का इतिहास रचा है 
पर किस कीमत पर ?
कभी क्यों नहीं सोचा 
प्रकृति से पन्गा ना ले मानव 
क्रोध इसका पचा नहीं पायेगा 
अब भी वक़्त है ,संभल जा 
धरती को बचा ,प्रकृति को सजा ---- 

Tuesday, September 25, 2018

बालकनी ,एक ऐसी जगह

बालकनी 
हर घर में होती है 
बालकनी ,एक ऐसी जगह 
जहाँ से खुलती है विचारो की खिड़की 
दिखायी देता है सारा आसमान 
मिलते हैं मेरे सपनो को पंख 
बतिआने आती है एक नन्ही चिड़िया 
दूर पेड़ पर करतब दिखाती नन्ही गिलहरी 
एक ऐसी जगह 
जहाँ अक्सर आती हैं महिलाएं 
अपने केश सँवारने 
युवा अपने फोन पर बतियाने 
बुजुर्ग अपनी यादों के किस्से सुनाने 
बच्चे आते हैं नयी दुनिया को समझने 
कुछ सामान बाहर फेंकते है 
कुछ अंदर तोड़-फोड़ करते हैं 
बालकनी से झांक झांक कर 
राहगीरों को आवाज़ लगाते हैं 
कभी बंदर -कभी चिड़िया 
ज़ोर ज़ोर चिल्लाते हैं 
एक ऐसी जगह 
जहाँ छिपाते हैं कुछ अपने आंसू 
मिटाते हैं कुछ अपनी उदासी 
जलाते हैं कुछ अपना क्रोध 
जब शांत हो जाता है मन 
हल्का सा मुस्काते हैं 
और बतियाते हैं ---एक कप कॉफी लेकर 
बतियाती है उनके साथ 
बालकनी ------

Thursday, September 20, 2018

वो मस्ती भरे दिन 

वो मस्ती भरे दिन
वो मस्ती भरे दिन 
वो पीपल की छाँव 
वो सखियों का साथ 
लाल परी ,नीली परी 
पोशम्पा -भई पोशम्पा 
बोल मेरी मछली कितना पानी 
वो नन्हा सा राजकुमार 
वो परियो की कहानी 
वो बचपन आज बहुत याद आया 
आज तो कैसा सूनापन है 
खाली चौपाल ,खाली आँगन है 
वो नन्ही चिड़िया भी आज नहीं आयी 
वो नानी का घर ,वो दादी का प्यार 
फिर से पाने को आँखे छलक आयी 
एक -दूजे के लिए आज वक़्त नहीं है 
पर नेटफ्रैंड की कमी नहीं है 
इस तकनीकी दुनिया ने सबकुछ छीन लिया 
नन्हे-मुन्हो से उनका भोला बचपन 
और बड़ो से उनका सुख-चैन 
दुनिया को तो जोड़ा पर 
अपनी ही जड़ो से तोड़ दिया -------------

Monday, September 17, 2018

kuch nagme

तुम नहीं समझोगे 
तन्हाई में भी एक नशा है 
इंतज़ार का भी अपना मज़ा है 
कभी किसी के लिए मिटकर देखो 
सबकुछ खोने में भी एक मज़ा है 
समय कभी नहीं ठहरता ,पर 
कुछ पल के लिए ठहर कर  देखो तुम 
कभी खुद को भुलाकर देखो तुम 
शब्दो से परे एहसास की दुनिया में जाकर देखो तुम 
सिर्फ फलक  को ही न देखो 
कभी इस ज़मी को भी प्यार से देखो तुम 
अपने अंदाज़ से रोज़ जीते हो अपनी ज़िंदगी 
आज मेरी तरह जीकर देखो तुम 
कभी खुद को भुलाकर देखो तुम 
-------------------------------------------------------
माँ क्या तू मुझको जन्म ना देगी 
तेरी ही परछाई हु माँ 
क्या तू भी मेरा साथ ना देगी 
माँ बस ज़रा सी हिम्मत कर 
तू  शक्ति है तू दुर्गा है 
यूँ ना दुनिया से डर 
माँ क्या मेरा साथ  देगी 
तू चाहे  तो मैं दुनिया  में आ सकती हूँ 
तेरी हर खवाइश पूरी कर सकती हूँ 
क्या मुझको तू आवाज़ न देगी 
माँ क्या तू मुझको जन्म ना देगी 
सारी दुनिया को मैं जानू 
तेरा अंश हूँ तुझको पहचानूँ 
तेरी कोख में सुरक्षित खुद को पाया 
एक तू है जिसने अपनाया 
क्या मुझे अपने ख्वाब ना देगी 
क्या तू मुझको जन्म ना देगी 
---------------------------------------------
मनुष्य के जन्म के साथ ही 
शुरू हो जाता है बढ़ना 
रिश्तो का  मायाजाल 
कुछ महीने तक बच्चा सिर्फ 
माँ को जानता है 
बाद में जुड़ते चले जाते हैं रिश्ते 
पापा ,भाई -बहिन ,चाचा ताऊ 
बुआ मौसी मामी। ...... 
और जैसे -जैसे होता है बड़ा 
छूटने लगते हैं रिश्ते 
एक उम्र आती है ऐसी 
जब पति -पत्नी को अपने सिवा 
सब रिश्ते बेमानी लगते हैं 
क्या स्वार्थ पर टिका होता है हर रिश्ता 
बस माँ -बाप का प्यार निस्वार्थ होता है ?
वक़्त के साथ सभी रिश्ते 
लगते हैं छूटने 
रह जाता है बस एक सहारा 
पति पत्नी बन जाते हैं 
जब एक -दूजे  सहारा 
सोचते है तब ज़िंदगी में 
क्या जीता क्या हारा 
अजीब होते हैं रिश्ते ???
----------------------------------------------------
 निराशा में आशा की किरण है मेरी माँ 
मेरा विश्वास ,मेरी ताक़त है मेरी माँ 
मेरी शान मेरी पहचान है मेरी माँ 
मैं हमेशा खुश रहूं ,आगे बढूं 
बस यही एक चाह है उनकी 
मेरी ख़ामोशी भी सुन लेती है मेरी माँ 
दर्द मुझे और रो देती है मेरी माँ 
कितना भी लड़ूँ माँ से 
लाख दुआएं देती मेरी माँ 
पतझड़ में बसंत  एहसास  है 
 -----------------------------------------------
किसी ने कहा पहाड़ तोडना मुश्किल है 
किसी ने कहा समुद्र  चीरना मुश्किल है 
 पर सबसे मुश्किल है 
इस दुनिया  को खुश करना 
अजीब  है ये दुनिया 
अजीब है इसके नियम 
किसी की जान जाए तो जाए 
खोट निकालना आदत है इसकी 
जिस दुनिया ने 'सीता मैया 'को भी ना छोड़ा 
की व्यंग्यवाणो की वर्षा 
रामजी ने जानकी को छोड़ा 
कोई खुश क्यों है ?
कोई दुखी क्यों है ?दुनिया को चैन ना आये 
कहीं  की ईट कहीं का रोड़ा 
भानुमति ने कुनबा जोड़ा 
क्यों हुआ ?कैसे हुआ 
ये धुनुष किसने तोडा 
भीड़ ने कभी परिवर्तन नहीं किया 
इतिहास गवाह है 
क्रांति हुई ,युग बदला 
तो किसी एक ने साहस किया है 
एक चिंगारी ही चीर देती है अँधेरा 
जीना है तो कर दुनिया  किनारा 
ज़िंदगी तेरी है बस जिए जा 
झुकेगी दुनिया  तू बस बढे जा 

Sunday, September 16, 2018

-एहसास अनकहे प्यार का

-एहसास अनकहे प्यार का  
 कहानी -एहसास अनकहे प्यार का  

भीड़ से खचाखच भरा नई दिल्ली का रेलवे स्टेशन। कुछ महिलाएं , बच्चें बेंच के पास ही चादर बिछाकर हाथ पर पूरी आचार रखकर खा रहे हैं। बतिया  रहे हैं ,फेरी वाले अपना  अलाप रहें हैं। ..समोसा----समोसा --पानी --ठंडा पानी.. . .    कुछ     यात्री टिकिट खिड़की पर भीड़ का सामना कर रहे हैं। एक वृद्ध महिला सबसे पीछे खड़ी चिल्ला रही थी -"मुझे टिकिट पहले लेने दो ,मेरी गाड़ी छूट जाएगी। "
लम्बी -पतली नेहा इस  भीड़ को देखकर सोचती है -" ऐसा लग रहा है सारे हिन्दुस्तान  ही सफर करना है। "बातूनी नेहा ,अल्हड़ मस्त बचपन मिश्रित जवानी। गजब का आकर्षण था उसकी आँखों में। कोई भी बिना प्रभावित हुए न रहता। देखने में सामान्य लेकिन चुंबकीय व्यक्तित्व से पूर्ण सादगी। उसकी मासूम बोलती आँखे ,नटखट हसी भोला बचपन एक कशिश पैदा करता। 
दोपहर ३ बजे अप्रैल का उमस  मौसम ,पर दिल में गोवा जाने उमंग लिए नेहा ,राजधानी एक्सप्रेस में नेहा अपनी सीट पर पहुंचकर -"अरे आज तो पूरा डिब्बा खाली ,कोई नहीं आया। अरे वाह !पुरे डिब्बे  कहीं भी बैठो या सो जाओ या डांस करो ,शोर मचाओ ,कुछ भी करो। पूरी आज़ादी। ऐसा करती हु सामने वाली खिड़की सीट पर बैठ जाती हूँ ,अकेली सीट है तो अन्य सहयात्रियों के आने का झंझट ही ख़त्म। "
थोड़ी देर में सभी सहयात्री अपना स्थान ले लेते हैं। लोगो की आवाजावी बढ़ जाती है। तभी   युवक नेहा  सामने वाली सीट पर पसर जाता है। नेहा इन सबसे बेखबर खिड़की से बाहर झाँकने  व्यस्त है।  मथुरा  आगे निकलते ही मौसम सुहावना हो गया। ठंडी ठंडी हवा  चलने लगी। ऐसा लग रहा था पेड़ भी ख़ुशी में झूम रहे हों। कहीं ऊँचे पेड़ तो स्वागत करते विस्तृत मैदान कही ऊँची आसमान को छूती बिल्डिंग तो कहीं कलकल बहती नदी। दूर तक फैले हरे खेत ,नाचता हुआ मोर ,तो कहीं धरती आसमान के अद्भुत मिलान का नज़ारा। तेज़ी से भागती ज़िंदगी और उस दुनिया  खोयी नेहा। 
" जामुन लेंगी आप ?"नेहा की तरफ बढ़ाते हुए प्र्शन उछाला उस युवक ने। सपने से जगी नेहा ने उस शख्स को आश्चरय से देखा ,कुछ सोचते हुए -"जान न पहचान बिना बात का मेहमान। ""नहीं "आपका परिचय श्रीमान ?"मेरा नाम शास्वत है भोपाल जा रहा हूँ ,वहीं जॉब करता हूँ। 
" आपको खिड़की से बाहर देखना पसंद है ?"
हाँ जी 
" आपको नई जगह घूमने का शौक है ?"
हाँ 
" आपको संगीत पसंद हैं ?"
हाँ 
कोन सा फनकार ?
अरिजीत सिंह। .. 
क्यों "
कुछ देर शाश्वत को घूरती है -"मेरी मर्ज़ी "मुझे जो पसंद है ,नहीं पसंद है ,आपको क्यों मिर्ची लगी है। नहीं देती तुम्हारे हर क्यों का जबाब " .ऐसा कहकर बाहर देखने लगती है। शास्वत उसकी इस अदा पर मोहित  जाता है और हसने लगता है। नेहा गुस्से से-" है क्यों रहे हो ?" "मेरी मर्ज़ी "शास्वत ने मुस्कराते हुए जबाब दिया। 
ट्रैन समुद्र  पास से गुजर रही है। सूर्य बदलो में छुपा हुआ था। शायद कुछ देर पहले यहाँ बारिश हुई हो। ठंडी हवा के झोंके मदहोश कर रहे थे। कहीं पेड़ो  झुरमुट कही पानी का झरना , तो कही हाथ हिलाकर अभिवादन करते बच्चे नेहा का मन मोह बांधे थे उन खूबसूरत नज़रो में खोयी अपने सपने बन रही थी नेहा। ख़ुशी की चमक से उसका चेहरा प्रतिबिम्बित  रहा था। शास्वत चुप्पी तोड़ते हुए - आप अकेली हैं यहाँ ,कोई साथ में ?"नेहा गुस्से से-" है ना ! मेरा भाई ,अगली सीट पर। "तभी ट्रैन एक लम्बी अँधेरी सुरंग से गुजरी। नेहा  इस सबके लिए तैयार नहीं थी उसकी डर से चीख निकल गयी। 
शास्वत -"अंताक्षरी खेलोगी "
नहीं। जानबूझकर वो गलत लाइन गाता है। टोकते हुए नेहा - एक गाना भी याद नहीं। क्या अंताक्षरी खेलोगे ?ना चाहते  भी नेहा उसके साथ गीत-संगीत ,हसी मज़ाक में व्यस्त जाती है। बीच -बीच में फेरी वाले चिप्स ,लस्सी ,पानी का राग अलापने आजाते। शास्वत ने दो गिलास लस्सी ली. एक गिलास नेहा  को देते हुए -" सफर में एक अजनबी की लस्सी याद रहेगी भले ही नाम भूल जाओ। "
रुको मैं अपने भाई  पैसे लेकर आती हु। " नहीं रहने दो। भाई को क्यों परेशान करती हो। बाद  देना। "ऐसा कहकर वो नेहा को गिलास पकड़ा देता है। दोनों  बीच साहित्य ,राजनीती और समाज की समस्याओ पर बातचीत होती रहती है. . 
रात के नौ बज चुके हैं। नेहा को नींद घेरने लगती है। वो अपने  भाई के पास जाने के लिए कड़ी होती है। ना चाहते हुए भी शास्वत कह उठता है -मत जाओ !रुक जाओ !" नेहा एक क्षण रूकती है मुस्कराती है और गुड नाईट कहकर  चली  जाती है। 
अर्धरात्रि लगभग १२ बजे होंगे नेहा की आँख खुलती है। प्यास  कारन गला सुख रहा था। पानी की खाली बोतल देखकर जैसे ही वो अपने भाई को आवाज़ लगाने के लिए उठती है उसकी नज़र  सीट पर सोये सहयात्री पर पड़ती है. चौंककर -" शास्वत तुम !यहाँ। " मेरी सीट कन्फर्म नहीं थी ,इसलिए उस सीट के स्वामी के आने पर टी टी ने मुझे सीट दे दी। पानी पीना है तुम्हे ? अगले स्टेशन पर रुकने पर मै ला दूंगा। "मुस्कराते हुए शास्वत  जबाब दिया। और अपनी कोहनियो में अपने चेहरे  थामे एकटक नेहा को निहारने लगा।  खुले लम्बे बाल ,उनपर विलायती  परियो वाली कैप ,नींद  से अलसाया सौंदर्य। शर्म से झुकी पलकें। झटके गाड़ी रूकती है और उसका धयान टूटता है। वो स्टेशन से  लेकर आता है और नेहा को दे देता है। पानी पीकर सो जाती है नेहा। 
सुबह जब शास्वत की आँख खुलती है ,उसका स्टेशन आ गया था सायद। हड़बड़ाकर उठता है।  उतरना था। नेहा अपनी सीट पर बैठी अखबार पढ़ते हुए उसे कनखियों से देखती है। बुझे  मन से सामान पैक करता है। ने हा  देखता है पर कुछ कह नहीं पाता। आँखों ही आँखों में विदा ले रहा हो जैसे। दोनों खामोश कोई सबद नहीं। बिना कुछ कहे गेट की तरफ बढ़ जाता है। ट्रैन रुकने में अभी समय है। गति धीमी हो चुकी है। नेहा अपनी सीट पर अपने भाई से बातें करने में व्यस्त हैं। तभी  बच्चा उसके पास आकर कहता है -दी आपको वहां  बुला रहा है। " चौंककर नेहा -"मुझे " अभी आती हु भाई। 
गेट के पास शास्वत को नेहा-"तुम ". 
"हाँ !अभी स्टेशन नहीं आया। यही बैठ जाओ। कुछ कहना है। "
शाश्वत उसे रुकने  का इशारा करता है। नेहा शरमाते हुए वहीं बैठ जाती है। 
शास्वत -" तुम्हे कुछ अजीब  लग रहा ?कुछ कहोगी नहीं ?"
नेहा - हां मुझे भी अजीब सा लग रहा है। समझ नहीं आ रहा पर क्या !
शास्वत -" अब हम कभी नहीं मिलेंगे शायद !दो विपरीत दिशाएं कहाँ मिलती हैं बस यह छोटी सी मुलाकात याद रखना। कुछ कहो नेहा ". ....... निशब्द ख़ामोशी ठहर जाती है दोनों के बीच। गाड़ी  जाती है। एक बार रुककर नेहा को निहारता है कुछ कहना चाहता हो जैसे  पर बिना कहे मुस्कराकर चले जाता है। नेहा उसे दूर तक जाते हुए देखती रहती है 

वंदना शर्मा 

Tuesday, September 11, 2018

दीवानगी ,पागलपन या

क्या कहे इसे 
दीवानगी ,पागलपन या अदम्य साहस 
मूर्खता तो नहीं कह सकते 
जब सोच- समझकर खुद पिया जाता है ज़हर 
पता है इस राह की मंजिल नहीं 
पर रास्ते बहुत खूबसूरत है 
और इंसान जाता है उसी राह 
 खुद को बर्बाद करने की हिम्मत 
सब में कहाँ होती है 
तो क्या कहा जाये इसे 
मोहबत ,इबादत या कुछ और 
इतना मनोबल होता है ु उस समय 
दहकते अंगारो पर भी उसे 
पथ की दहकता नहीं 
किसी की ख़ुशी दिखाई  है 
हँसते -हँसते लुटा देता है अपना सबकुछ 
किसी एक के चेहरे पर लाने को मुस्कान 
आज तक नहीं कर पाया परिभाषित 
कोई भी इंसान 
क्या है ये ?खुद मिटकर भी 
देना दुसरो को मुस्कान 
प्रेम ,इश्क़ ,चाहत और भी 
हैं कई इसके नाम 

पागल होती है लड़कियां

पागल होती है लड़कियां 
बिन सोचे समझे किसी से भी 
प्यार कर लेती है 
फिर उसकी ख़ुशी के लिए 
हो जाती है बर्बाद 
कुछ नहीं बचता उनके पास 
कभी नहीं सोचती अपने बारे में 
रात -दिन खटती रहती है मशीन की तरह 
ना तेल-पानी की ज़रूरत ,न रख -रखाव की 
चौबीस घंटे कोल्हू के बैल की तरह निरंतर 
परिवार रूपी धुरी के चारों ओर घूमती रहती है 
कभी पति की चिंता ,कभी सास की सेवा 
कभी भाई का दुःख याद आता है 
कभी बहन के सपने पुरे करने का ख्याल 
कभी माँ -बाप का फ़र्ज़ याद आता है 
सचमुच पागल ही तो होती है लड़कियां 
इन सबसे परे कभी नहीं सोच पाती 
अपने अस्तित्व के बारे में 
वो क्यों है ?क्या है उनका होना 
और एक दिन इसी तरह 
सो जाती है चिर निद्रा में 
इसी तरह रात -दिन घिसते -घिसते
पागल ही तो होती हैं। ........ 

Friday, September 7, 2018

पागलपन भी ज़रूरी है

कभी पागलपन भी ज़रूरी है 
होश में रहे जब तक ,सहते रहे सब 
ना की शिकायत किसी से 
पर जब होश खोये तो 
क्रांति हुई ,जागी जनता 
कुछ करना है ,या मरना है 
पाना नहीं सब कुछ खोना है 
एक बूँद सागर से मिलने को फ़ना हो गयी 
तोड़ सारी हदें मीरा दीवानी हो गयी 
जब -जब होश गवाया इंसान ने 
धरती डोली अम्बर चकराया 
कान्हा ने गीता का संदेस सुनाया 
कभी -कभी बेड़िया दाल देती है बुद्धि 
लाभ -हानि के चक्र्व्यूह में फंसा देती है बुद्धि 
पर एक क्षण का पागलपन इतिहास बना देता है 
किसी को भगत सिंह ,किसी को राँझा बना देता है 
होश में रहकर भी कहीं होश खो जाये 
तो सोचना कभी ए दोस्तों 
ज़रूरी नहीं समझदारी हर वक़्त ज़िंदगी मे
जीने के लिए कुछ खास पल 
कभी कभी पागलपन भी ज़रूरी है