ज़िंदगी की कश्मकश में कुछ ऐसा उलझे हम
कुछ दुनिया हमको भूल गयी और
कुछ दुनिया को भूल गए हम
कब दिन ढला कब रात आयी
दैनिक कार्य-पिटारो में अपनी सुध भी ना आयी
गमो में भी मुस्करा दिए
जान -बूझकर काँटों पर पग बढ़ा दिए
पर खुलकर कब हँसे
वो खिलखिलाहट तो भूल गए हम
जाने कैसी उलझी ज़िंदगी
सुलझाने में ,ज़िंदगी को
और उलझती गयी ज़िंदगी
फ़र्ज़ ,क़र्ज़ और न जाने कितनी जिम्मेदारी
सीढ़ी दर सीढ़ी मंजिल चढ़ी ज़िंदगी
गिरकर फिसली , फिर उठ बढ़ चली ज़िंदगी
औरो को समझने में उलझे रहे
पर खुद को ही न समझे हम
ज़िंदगी की कश्मकश में कुछ ऐसा उलझे हम
खुशियां चारो ओर बिखरी थी
हर जगह मृगमरीचिका सा दौड़े
मन की ख़ुशी न देखी बाहरी चकाचोंध में उलझे हम
सबका साथ दिया ,किसी को तनहा न छोड़ा
फिर भी क्यों तन्हाई से दो -चार हुए हम
बस एक ज़िद थी खुद से ही जीतने की
ना जाने क्यों खुद से ही हार गए हम
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तुम नहीं समझोगे
क्या कहती है रात की तन्हाई
तारो की ख़ामोशी भी करती है बाते
तुम नहीं समझोगे
चाँद कैसे बिखेर देता है दूधिया हँसी
आसमां भी होता है व्याकुल
धरती से एक मुलाकात के लिए
पर तुम नहीं समझोगे
सुबह की ठंडी हवा जब
तन को छूकर गुजरती है
पत्तों पर ओंस की बुँदे जब चमकती है
चिड़िया भी ची ची कर कुछ गाती है
फूल भी हँसते है और
हवा भी गुनगुनाती है
पर तुम नहीं समझोगे
बच्चों की मासूम हंसी
उनकी तोतली बोली
उनकी आँखों में तैरते सपने
बारिश की बूंदो को
तुम नहीं समझोगे
छोटी छोटी बाते कितनी खुशिया देती है
एक ज़रा सी बात आँखे नम कर देती है
कभी कभी आँखे भी कुछ कहती है
पर इन आँखों की जुबां को
तुम नहीं समझोगे
तुम नहीं समझोगे ----
क्युकी तुम कविता नहीं लिखते ---
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