Thursday, April 30, 2015

kash aisa ho jaye

काश ऐसा जाये
मैं और तुम  दुनिया की में खो जाये
कभी किसी अनजाने रस्ते पर
बस हम दोनों
 और ये हवाएं ,संग गुनगुनाये
कोई नया तराना
बीच सड़क ज़ोर से चिल्लाये
और हँसते -हँसते
लोट-पॉट हो जाये
ना  कुछ कहो
ना हम कुछ कहे
एक दूसरे की आँखों में
कुछ इस तरह खो जाये
न दिन का पता चले
  कब रात हो जाये
चलो एक दिन
हम दोनों जिए कुछ पल ऐसे
कुछ पागलपन ,कुछ मस्ती
 भूलकर
अपना बचपन फिर से जियें काश!!!!!!!!!
काश !ऐसा हो 

Saturday, April 25, 2015

uff ye garmi

ज्येष्ठ की ताप्ती दोपहरी
इतनी उमस और बेचैनी
छीन लेती है साडी ऊर्जा
उस पर बिजली की आँख मिचौनी
आँखे भी तरसे शीतल छाया को
रुखा  मौसम
बारिश को तरसे मन
कैसे खिलखिलाए मन
उफ़! ये गर्मी
कैसे सेहटी होंगी
वो मज़दूर औरते
जो दिनभर
खेतो व् भट्टो पर मज़दूरी करती हैं
और एक मैं हु छोटी सी जान
गिरी गिरी अब गिरी
 कहाँ गिरी
उफ़!ये गर्मी
कुछ  हो सकती
थोड़ी सी बारिस रोज़ नहीं हो सकती
पर ये तो प्रकृति का नियम है
कहीं ख़ुशी तो गम
कहीं आँखे नाम हैं
किसी के लिए जो ज़रूरी है
किसी के लिए वो असहनीय बेदम है
ईश्वर तेरी सृष्टि ,तेरे नियम
दे दे थोड़ी थोडा संयम
जानती हु कुछ नहीं हो सकता
शिकायत करने से
होगा वही जो होना है पर नहीं सही जाती ये गर्मी

e mere sehar bijnor

ए मेरे शहर बिजनौर ,तेरे बारे में दुनिया  कहे ,पर मेरे लिए तू खास है तेरी गलियो में मेरा बचपन बीता ,वो सुनहरे दिन ,वो स्कूल की यादें ,तेरे संग खेलकर मैं बड़ी हुई ,वक़्त के तुफानो को दोनों ने झेला ,दुःख के झमेलों को , ठिठेलो को ,बदलते रिश्तो को ,नित नए परिवर्तनों को ,दोनों ने एकसाथ देखा तूने मुहे पहचान दी ,एक नयी उडआन दी ,ज़िंदगी के कुछ खास लम्हे भी ,जिए तेरी गोद में कुछ यादें अनकही ,कुछ खुशबुएँ अनछुई ,कुछ एहसास पहली बार जिए ,कुछ सपने तेरे साथ बने ,कुछ बरसाते बड़ी खास रही , प्यार पहली छुअन ,वो मीठी यादें तकरार की ,तेरे संग जाना मैंने ,हर रंगज़िंदगी का पहचाना मैंने ,ऐ मेरे शहर , हमसफ़र ,तुझे सलाम मेरा। । मेरी यादों में अमर रहेगा नाम तेरा। ………………………………… 

Wednesday, April 22, 2015

मेरा नटखट बेटा
इतना चंचल इतना मासूम
उफ़ इसकी ये अदा
देखू इसे या देखती जाऊ इसके बचपन को कैद कर लू अपनी आँखों में 

Monday, April 20, 2015

kahani tik-tik tik

आज सूरज कितना निस्तेज हो रहा है ,दिन के एक बजे जब उसे अपने परम तापमान पर होना चाहिए ,बिंदी जैसा चमक रहा है आसमान के चेहरे पर ,और ये दुष्ट कोहरा जैसे सूरज को ज़ंग में हराने को अमादा हो जैसे कह रहा हो -"निकल कर दिखा ,देख मैं धुआं धुआं सा कोहरा तेरा तेरा रस्ते रोके खड़ा हुँ. लाख कोशिश करने के बाद भी कोहरे की जकरन से मुक्त नहीं हो पा रहा था सूरज। उसकी इस हालत पर गुस्सा भी आरहा है और  तरस भी। तभी तो कहते है न किसी बात का घमंड नहीं करना चाहिए। ये वही सूरज है जो जून के महीने में अपने अहंकार के कारन इतना तेज़ और गरम चमकता है ,आज कहाँ गयी इसकी ताक़त ,एक अदने से कोहरे से डरकर क्यों मुह छुपा  रहा है?डरपोक कहीं का !जो महान होते है वो तो हमेसा एक् से रहते हैं ,पापा ने तो कहा था -"सुख-दुःख में हार में जीत में,सभी परिस्थितियों में जो सदैव एक से रहते है  , महान होते हैं। तो क्या सूरज महान है ?लगता है सूरज को मेरी दांट से शर्म आ रही है। तभी तो कैसे झांक रहा है ,बादलों के बीच से। सुहानी को अपनी बहादुरी पर हसी आ गयी। मामी देखो सूरज भी दर गया मेरी डॉट से और निकल आया ना ,"तुझसे तो साडी दुनिया डरती है अरे तेरी क्या बात!"मामी ने हाथ फेंकते हुए मुंह बनाते हुए कहा। "आओ न मामी मेरे पास बैठो खाट पर ,धुप अच्छी निकल रही है ,"सुहानी ने बुलाते हुए कहा। "नहीं मैं तो कुर्सी पर  बैठूंगी ,बड़ी मुस्किल से मिलती है कुर्सी। सब कुर्सी की माया है " मामीने कुर्सी पर बैठते हुए कहा और सब खिलखिलाकर है दिए।
"हाँ सब कुर्सी की ही माया है ,जब तक कुर्सी पर हैं तबतक साडी दुनिया अपनी ,सभी अपने रिश्तेदार बन जाते हैं.,और कुर्सी से उतरते ही अपना साया भी पहचानने से इंकार कर देता है. "

बहुत देर से चुपचाप लेटे मामाजी ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए  कहा -"कुर्सी  गम क्या होता है पूछो उससे जो रिटायर होने वाला हो सर पर चार जवान लड़कियों की चिंता ,शरीर में तो ताक़त है,ज़िंदगी के तुफानो से लड़ने की पर अगर उससे वो ज़मीन ही छीन ली जाये तो उसे   चारो ओर अँधेरा ही दिखाई देता है,एकबार फिर से बेरोज़गार होने का गम   स्वाभिमान को छलनी कर देता है। जिसने साडी ज़िंदगी सिर्फ दिया हो ,हमेसा दुसरो की मदद की हो जिससे एक पल भी खली न बैठा जाये  वो सरे दिन घर पर ठाली   कैसे बैठ सकता है ?कुछ ऐसी ही स्थिति उस समय मामाजी की हो रही थी ,उनका रिटायरमेंट है और  बेरोज़गार होने के गम में सुबह से ही उदास लेते हैं। चिंता चिता से भी बढ़कर होती है। हस्ते खेलते चेहरे को चिड़चिड़ा बना देती है। और वो इंसान अपनी इस अकुलाहट इस बेचैनी को दुरो पर गस्से के रूप में निकलता है।
सुहानी फिर से यादों में खो जाती है। -जैसे कल की ही बात हो। समय कितनी तेज़ी से बदलता है,पता ही नहीं चलता। गो का जीवन कितना सरल होता है न ,कोई लॉग लपेट नहीं कोई दिखावा नहीं ,   कम साधनो में भी परम सुख की अनुभूति। कितना निश्छल और पवित्र मन होता है गाउँ की भोली लड़कियों का ,सचमुच गाँव की मिटटी बसे आने वाली खुशबु कितना आनंदित करती है ,रोम रोम पुलकित हो उठता है.
सुहानी अपने गाँव की यादों में खोई कच्ची मिटटी की खुशबु को महसूस करने लगती है.wo आँगन में चूल्हे पर ,माँ का खाना बनाना चूल्हे के चारो ओर परिजनों का बैठना ,गरम गरम पानी के हाथ की बाजरे की रोटी के इंतजार में गिनती करना , माँ का रोटी थपथपाते हुए हमे देखना और हंसना सब याद आरहा है. आज न जाने क्यों? कितने प्यार से माँ बाजरे के आते को अथेली के सहारे आहिस्ता आहिस्ता मथती बीच में से टूट न जाये धीरे धीरे रोटी को बढाती कितना स्वाद था न माँ के बने खाने में। "
टिक-टिक-टिक घडी की सुइयों से अचानक धयान भांग होता है सुहानी का। फिर  शहरी दुनिया में लौटते हुए -किसी का दिन यु ही कैसे बीत जाता है कब कहाँ जाना है क्या करना है ?खुद को भी पता नहीं रहता। कब दिन ढलता है कब रात होती है पता ही नहीं चलता। रोज़ अपने कार्यो की लिस्ट बनती हु पर करती कुछ और ही हु ,सारा टाइम टेबल रखा रह जाता है.pehle किसी और काम की प्राथमिकता आ जाती है,और उस काम के चक्कर में अपना काम भूल जाती हुय़े क्या हो गया है मुझे?इतनी भुलक्कड़ तो कभी न थी, जाती हु किसी काम से बीच में कोई दूसरा काम बता देता है , जाना होता है लाइब्रेरी पहुँच जातु हु प्रचार्य के ऑफिस में। कभी बाबूजी के ऑफिस ,कभी लाइब्रेरी ,कभी मास्कों की क्लास ,कभी हिंदी की क्लास कभी ऊपर -कभी नीचे। कभी इस संपादक  फोन तो कभी किसी दोस्त को मदद चाहिए ,सबकी सुनते सुनते खुद की खबर नहीं रहती।
दिन और रात के बारे में सोचने की फुर्सत किसे है?सुहानी इतनी देर से  थितभी उसकी मम्मी ने टोका "अब बस भी कर ,सुबह साम चटर -पटर ,चटर पटर " कभी चुप नहीं होती ये लड़की। चल चाय बना ले सबके लिए। "सुहानी हँसते हुए कुछ गुनगुनाते हुए चाय बनाने चली जाती है. चाय बनाते उए उसे कई काम याद आते है चाय की पट्टी डाली तो कपडे उतरने  आयी ,जल्दी से दौड़कर कपडे उतारकर लाई ,चाय में चीनी डाली तो पीछे से पापा की आवाज़ -"पानी लाना एक गिलास" भागकर पानी देकर आती है चाय में दूध डालती है  हुए मुस्कराती रहती है चाय के खोलने तक आता छांटी है फिर सबको चाय देकर आती है ,खुद पिटी है चलते चलते भागते भागते। एक घूंट चाय ,गेट पर खटखट। गेट खोलने जाओ,आकर कप उठाया तो बेटा पानी लाओ। टंकी बंद करो ये करो वो करो किसी का कुछ तो किसी का कुछ। चाय ठंडी हो जाती है अब ठंडी चाय किस काम कि. सुहानी उसे सिंक में दाल देती है रसोई में कुछ ढूंढ़ते हुए ख़ुशी से उछाल पड़ती है."अरे वह बर्फी ! वह क्या बात है!कहते हुए सबको बताती है आज मई ज़रूर समय से पढाई करुँगी। मिनी उसका मज़ाक बनाते हुए कहती है-"रहने दे बस तू अओउर तेरा समय"
सब हंसने लगते हैं घडी टिक-टिक-टिक चलती रहती है चलती रहती है.suhani की ज़िंदगी. किसी काम का समय निश्चित हो न हो पर सुहानी के जागने का समय ठीक चार बजे बिना किसी अलार्म के निश्चित रहता हैग़्हर्वलो को उसके उठने के साथ ही समय भी ज्ञात हो जाता है."अजीब लड़की है ये सुहानी भी सरे दिन न जाने क्या क्या करती  बस इधर कूद उधर भाग  कभी चैन से नहीं बैठती." मम्मी का स्वर सुनाई देता है. सुहानी घडी की ओर देखती है टिक-टिक-टिक ओह्ह नो 'छह बज गए अभी तो वार्ता लिखनी है संपादक के लिए रिपोर्ट लिखनी है, क्या करूँ? क्या करूँ?
                                                                                           

Friday, April 17, 2015

anjam ki fitrat

कभी आंधी उड़ा ले जाती है
झरते पत्तों को सैलाब की तरह
उसी तरह कभी ज़िंदगी बिखर जाती है
और समेटना मुस्किल हो जाता है
अब हर किसी के पास तो
हुनर होता नहीं
गिरते पत्तों को लपक ले
गिरने से पहले
वो पत्ता भी कहाँ जानता  किस्मत
जिस साख से टुटा और अंजाम की फितरत। ....
कभी पहुँच जाता है कोई अंजाम तक
तो किसी को रास्ता ही नहीं मिलता। ............. 

aisa nahi

ऐसा नहीं कि कुछ पाया नहीं हमने
ऐसा नहीं कि कुछ खोया नहीं हमने
बस ज़िंदगी को छोड़ दिया वक़्त के भरोशे
इन्ही बातो का हिसाब लगाया नहीं हमने
ऐसा नहीं कि हमे दर्द नहीं होता
ऐसा नहीं कि हमे कुछ एहसास नहीं होता
आदत है हमे यु ही मुस्कराने की किसी को गेम-दिल बताना सीखा नहीं हमने 

dilli na rahi dilwalo ki

दिल्ली न रही दिलवालो की
पथरो के बीच रहकर पत्थर की होगयी
मानवता ,संवेदना कहीं खो गयी
मूक दर्शक बन गयी जनता
insanieet शर्मशार हो गयी ..............
दिल्ली है दिलवालो की.ऐसा सुना था .पर अब नहीं रही .अब यहाँ के लोग भी स्वार्थी ,क्रूर और पत्थर बन गए हैं .दिल्लीवासी अब किसी की मदद को आगे नहीं आते.दो साल पहले जब मै दिल्ली आयी थी ,किसी प्रसंगवश तो दिल्ली की अच्छी छवि लेकर गयी थी अपने शहर .तब दिल्ली में लोग संवेदनशील थे ,दुसरो के सहायता के लिए ततपर रहते थे मेट्रो में ही नहीं बस में भी महिलाओ के लिए अपनी सीट छोड़ देते थे ,तब मै सोचती थी दिल्ली के लोग सच में शिक्षित हैं ,महिलाओ का सम्मान करते है ,कितने विनर्म है यहाँ के लोग ,बिना कहे ही ज़रूरतमंद को सीट दे देते हैं, लेकिन दो साल बाद कल की घटना देख यही कहूँगी ,यहाँ के लोग पत्थर के हो गए हैं. मानवता तो कहीं दिखाई नहीं देती ,sadachar ,shishtachar की जगह स्वार्थ और durvyabahar आज्ञा.मेट्रो janakpuri से नॉएडा जाना था.bheed काफी थी तो खड़े होकर जाना स्वाभाविक था.लेकिन हद तो तब हो गयी जब वहां फेविकोल से चिपके बैठे लोगो ने एक ज़रूरतमंद को भी अपनी सीट नहीं दी. उल्टा पसरे रहे पैर फैलकर .एक व्यक्ति अपनी गोडी में अपने बच्चे को लिए एक हाथ से लटके हुए आधे घंटे से खड़ा सफर कर रहा था. और किसी भी सज्जन ने उन्हें सीट नहीं दी .मै भी खड़े खड़े थक गयी थी ,पर मुझसे ज़्यादा ज़रूरत उन्हें थी. उनके दोनों हाथ में दर्द हो रहा होगा. मुहसे जब रहा नहीं गया तो फैट पड़ा मेरा गुस्सा -" आप सभी को दिखाई नहींदेता ,आधे घंटे से यह व्यक्ति बच्चे को लिए लटक रहा है. मानवता नहीं रह गयी क्या?" तभी एक सज्जन को उतारना था ,उसके स्थान पर मैंने उनसे बैठने को कहा .लेकिन वो व्यक्ति तो उन सबसे ज़्यादा सज्जन था. उस व्यक्ति ने सीट मुझे देकर कहा :"मै ठीक हु बस आप मेरे बच्चे को बैठा लीजे .मै यह नहीं कहती की ज़रूरतमंड सिर्फ महिलाये ही होती है उन्हें सीट दी जाएँ बल्कि मै यह कहना चाहती हु किसी भी स्त्री/पुरुष जो की खड़े रहने में असमर्थ है ,उसे सीट दी जाये .मानवता के लिए हम इतना तो कर ही सकते है .किसी और को अपनी सीट देना आपकी उदारता तो दिखती ही साथ ही सभी को मानवता का सन्देश देती है .मै दिल्लीवासियो से निवेदन करती हु अपनी अच्छे बानी रहने दे ,दिल्ली के दिल में मानवता को जीवित रहने दे. 

filder

मेरा बेटा सात माह का है उसकी फील्डिंग करते करते मई थक जाती हु. मुझे नींद आती है तो उसका रेडियो बज उठता है ,पहली आवाज़ में न सुनो तो तेज़ और तेज़ बजता है। कितना ही प्यार से समझाओ "बेटा मम्मा  नींनी आ रही है सो जाओ "बड़ी गंभीरता से सुनता है जैसे सब समझ गया हो ,मेरे आँख बंद करते ही फिर रेडियो स्टार्ट। मुझे परेशान  ऐसे विजयी मुस्कान से हस्त है हल्का सा मुह खोलकर ,बोबली हसी ,.... जब उसे डाटती हु  तेज़हंस्ता है जाइए मई कोई जोके सुना रही हु। कहती हु-"हिलना मत यहाँ से " तो ऐसे चिढ़ाता है जैसे कोई मैच जीतकर आया हो। वोकर में खड़ा करो तो उसके  पीछे पीछे भागो कहीं सर न फोड़ न ले ,मेज़ पर रखा सब सामान नीचे, मई उठ उठा कर उचित स्थान पर रखती हु तो वो फिर चोका छक्का मार देता है 
 क्या कहे इसे
दीवानगी , पागलपन या अदम्य साहस
मूर्खता तो नहीं कह सकते
जब सोच -समझकर खुद पिया जाता है ज़हर
पता है इस राह की मंजिल नहीं
पर रास्ते बहुत खुबसूरत है
और इंसान जाता है उसी राह
खुद को बर्बाद करने की हिम्मत
सबमे  कहाँ होती है
तो क्या कहा जाये इसे

mera beta

मेरा नटखट बेटा
कभी इतना चंचल
कभी इतना मासूम
हर चीज़ उसके आगे बोनी
लगता है डर
कर न दे कोई अनहोनी