Saturday, April 25, 2015

uff ye garmi

ज्येष्ठ की ताप्ती दोपहरी
इतनी उमस और बेचैनी
छीन लेती है साडी ऊर्जा
उस पर बिजली की आँख मिचौनी
आँखे भी तरसे शीतल छाया को
रुखा  मौसम
बारिश को तरसे मन
कैसे खिलखिलाए मन
उफ़! ये गर्मी
कैसे सेहटी होंगी
वो मज़दूर औरते
जो दिनभर
खेतो व् भट्टो पर मज़दूरी करती हैं
और एक मैं हु छोटी सी जान
गिरी गिरी अब गिरी
 कहाँ गिरी
उफ़!ये गर्मी
कुछ  हो सकती
थोड़ी सी बारिस रोज़ नहीं हो सकती
पर ये तो प्रकृति का नियम है
कहीं ख़ुशी तो गम
कहीं आँखे नाम हैं
किसी के लिए जो ज़रूरी है
किसी के लिए वो असहनीय बेदम है
ईश्वर तेरी सृष्टि ,तेरे नियम
दे दे थोड़ी थोडा संयम
जानती हु कुछ नहीं हो सकता
शिकायत करने से
होगा वही जो होना है पर नहीं सही जाती ये गर्मी

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