Friday, April 17, 2015

dilli na rahi dilwalo ki

दिल्ली न रही दिलवालो की
पथरो के बीच रहकर पत्थर की होगयी
मानवता ,संवेदना कहीं खो गयी
मूक दर्शक बन गयी जनता
insanieet शर्मशार हो गयी ..............
दिल्ली है दिलवालो की.ऐसा सुना था .पर अब नहीं रही .अब यहाँ के लोग भी स्वार्थी ,क्रूर और पत्थर बन गए हैं .दिल्लीवासी अब किसी की मदद को आगे नहीं आते.दो साल पहले जब मै दिल्ली आयी थी ,किसी प्रसंगवश तो दिल्ली की अच्छी छवि लेकर गयी थी अपने शहर .तब दिल्ली में लोग संवेदनशील थे ,दुसरो के सहायता के लिए ततपर रहते थे मेट्रो में ही नहीं बस में भी महिलाओ के लिए अपनी सीट छोड़ देते थे ,तब मै सोचती थी दिल्ली के लोग सच में शिक्षित हैं ,महिलाओ का सम्मान करते है ,कितने विनर्म है यहाँ के लोग ,बिना कहे ही ज़रूरतमंद को सीट दे देते हैं, लेकिन दो साल बाद कल की घटना देख यही कहूँगी ,यहाँ के लोग पत्थर के हो गए हैं. मानवता तो कहीं दिखाई नहीं देती ,sadachar ,shishtachar की जगह स्वार्थ और durvyabahar आज्ञा.मेट्रो janakpuri से नॉएडा जाना था.bheed काफी थी तो खड़े होकर जाना स्वाभाविक था.लेकिन हद तो तब हो गयी जब वहां फेविकोल से चिपके बैठे लोगो ने एक ज़रूरतमंद को भी अपनी सीट नहीं दी. उल्टा पसरे रहे पैर फैलकर .एक व्यक्ति अपनी गोडी में अपने बच्चे को लिए एक हाथ से लटके हुए आधे घंटे से खड़ा सफर कर रहा था. और किसी भी सज्जन ने उन्हें सीट नहीं दी .मै भी खड़े खड़े थक गयी थी ,पर मुझसे ज़्यादा ज़रूरत उन्हें थी. उनके दोनों हाथ में दर्द हो रहा होगा. मुहसे जब रहा नहीं गया तो फैट पड़ा मेरा गुस्सा -" आप सभी को दिखाई नहींदेता ,आधे घंटे से यह व्यक्ति बच्चे को लिए लटक रहा है. मानवता नहीं रह गयी क्या?" तभी एक सज्जन को उतारना था ,उसके स्थान पर मैंने उनसे बैठने को कहा .लेकिन वो व्यक्ति तो उन सबसे ज़्यादा सज्जन था. उस व्यक्ति ने सीट मुझे देकर कहा :"मै ठीक हु बस आप मेरे बच्चे को बैठा लीजे .मै यह नहीं कहती की ज़रूरतमंड सिर्फ महिलाये ही होती है उन्हें सीट दी जाएँ बल्कि मै यह कहना चाहती हु किसी भी स्त्री/पुरुष जो की खड़े रहने में असमर्थ है ,उसे सीट दी जाये .मानवता के लिए हम इतना तो कर ही सकते है .किसी और को अपनी सीट देना आपकी उदारता तो दिखती ही साथ ही सभी को मानवता का सन्देश देती है .मै दिल्लीवासियो से निवेदन करती हु अपनी अच्छे बानी रहने दे ,दिल्ली के दिल में मानवता को जीवित रहने दे. 

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