Monday, July 2, 2012

 कहाँ खो जाती हु मै
चली जाती हु ,किसी और दुनिया में
इस दुनिया से कहीं दूर  कुछ पल के लिए
आने पर पाती हु तनहा इस दुनिया में
जैसे जागी हु अभी गहरी नींद से
और समझने की करती हु कोशिश
अपने आस-पास की दुनिया को
कुछ अपने और कुछ सपने एक जैसे होते है
जितना पास होते है ,उतने दूर लगते है
जाने कहाँ खोई थी , किन्ही विचारो में
कोयल की कूक ने चेताया
 क्या था ऐसा जो ...
जो अभी तक समझ नहीं आया
कहीं तो कुछ है ,जो किये हुए है बेचैन
ये असीमित आकाश
ये उड़ते परिंदे 
दूर कहीं खोजती कुछ अपना सा
मेरी ये व्याकुल द्रष्टि
सब कुछ तो है जिंदगी में
फिर क्यों लगता है कुछ अधुरा सा
और इन अनजाने -जाने प्रश्नों में
कहीं खो जाती हु मै .............
वंदना शर्मा 

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